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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
व्र॒तेन॑ स्थो ध्रु॒वक्षे॑मा॒ धर्म॑णा यात॒यज्ज॑ना। नि ब॒र्हिषि॑ सदतं॒ सोम॑पीतये ॥२॥
स्वर सहित पद पाठव्र॒तेन॑ । स्थः॒ । ध्रु॒वऽक्षे॑मा । धर्म॑णा । या॒त॒यत्ऽज॑ना । नि । ब॒र्हिषि॑ । स॒द॒त॒म् । सोम॑ऽपीतये ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्रतेन स्थो ध्रुवक्षेमा धर्मणा यातयज्जना। नि बर्हिषि सदतं सोमपीतये ॥२॥
स्वर रहित पद पाठव्रतेन। स्थः। ध्रुवऽक्षेमा। धर्मणा। यातयत्ऽजना। नि। बर्हिषि। सदतम्। सोमऽपीतये ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
विषय - उक्त अध्यक्षों को माता पितावत् प्रजा पालन का उपदेश ।
भावार्थ -
भा०-हे स्नेहयुक्त, प्रेम और आदर से एक दूसरे को योग्य कार्य के लिये वरण करने वाले और वरण करने योग्य ! एवं श्रेष्ठ जनो ! आप दोनों (धर्मणा व्रतेन ) धर्मानुकूल व्रताचरण से ( ध्रुव-क्षेमा ) स्थिर रक्षण और कल्याण युक्त तथा ( यातयत्-जना ) मनुष्यों को सन्मार्ग पर यत्नशील बनाते हुए ( सोम-पीतये ) अन्न जल आदि ऐश्वर्य के भोग एवं पालन के लिये ( बर्हिषि ) आसन एवं वृद्धिशील राष्ट्र-प्रजाजन के ऊपर अध्यक्ष रूप से ( नि सदतम् ) नियमपूर्वक बिराजो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बाहुवृक्त आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ उष्णिक् छन्दः ॥ तृचं सुक्तम् ।।
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