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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
    ऋषिः - बाहुवृक्त आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इ॒ह त्या पु॑रु॒भूत॑मा पु॒रू दंसां॑सि॒ बिभ्र॑ता। व॒र॒स्या या॒म्यध्रि॑गू हु॒वे तु॒विष्ट॑मा भु॒जे ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । त्या । पु॒रु॒ऽभूत॑मा । पु॒रु । दंसां॑सि । बिभ्र॑ता । व॒र॒स्या । या॒मि॒ । अध्रि॑गू॒ इत्यध्रि॑ऽगू । हु॒वे । तु॒विःऽत॑मा । भु॒जे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह त्या पुरुभूतमा पुरू दंसांसि बिभ्रता। वरस्या याम्यध्रिगू हुवे तुविष्टमा भुजे ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह। त्या। पुरुऽभूतमा। पुरु। दंसांसि। बिभ्रता। वरस्या। यामि। अध्रिगू इत्यध्रिऽगू। हुवे। तुविःऽतमा। भुजे ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 73; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    भा०- ( त्या ) वे आप दोनों ( पुरुभूतमा ) बहुत से प्रजाजनों में उत्तम सामर्थ्यवान्, ऐश्वर्य पुत्रादि को उत्पन्न करने वाले, बहुतों के उत्तम आश्रय रूप और ( पुरू दंसासि ) नाना कर्मों को ( बिभ्रता ) धारण करने वाले ( वरस्या ) अति श्रेष्ठ, परस्पर को वरण करने वाले आप दोनों को मैं ( इह ) इस अवसर में ( यामि ) प्राप्त होता हूं और ( अध्रिगू ) भूमि पर, अधिकारवान् एवं मार्ग गगन में दूर २ देशों तक जाने वाले ( तुवि:-तमा ) अति बलवान् प्रचुर धन के स्वामी आप दोनों को मैं (हुवे ) आदर पूर्वक बुलाता हूं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पौर आत्रेय ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः - १, २, ४, ५, ७ निचृद-नुष्टुप् ॥ ३, ६, ८,९ अनुष्टुप् । १० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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