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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पौर आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ई॒र्मान्यद्वपु॑षे॒ वपु॑श्च॒क्रं रथ॑स्य येमथुः। पर्य॒न्या नाहु॑षा यु॒गा म॒ह्ना रजां॑सि दीयथः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒र्मा । अ॒न्यत् । वपु॑षे । वपुः॑ । च॒क्रम् । रथ॑स्य । ये॒म॒थुः॒ । परि॑ । अ॒न्या । नाहु॑षा । यु॒गा । म॒ह्ना । रजां॑सि । दी॒य॒थः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईर्मान्यद्वपुषे वपुश्चक्रं रथस्य येमथुः। पर्यन्या नाहुषा युगा मह्ना रजांसि दीयथः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईर्मा। अन्यत्। वपुषे। वपुः। चक्रम्। रथस्य। येमथुः। परि। अन्या। नाहुषा। युगा। मह्ना। रजांसि। दीयथः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    भा० - आप दोनों (ईर्मा) संसार मार्ग पर जानेवाले युगल स्त्री पुरुष ( रथस्य चक्रम् ) रथ के चक्र के तुल्य ( वपुषे वपुः) एक शरीर के सहारे के लिये ( अन्यत् वपुः ) उससे भिन्न दूसरे शरीर को जानकर परस्पर को ( येमथुः ) नियन्त्रित करते, नियम में बांधते और विवाह बन्धन में बांधते हो। उसी प्रकार ( अन्यः ) अन्य भिन्न २ प्रकार के ( नाहुषा- युगा ) परस्पर बन्धन में बंधने वाले मनुष्यों के जोड़ों को ( परिदीयथः ) चलाते और ( मह्ना ) अपने बड़े भारी सामर्थ्य से ( रजांसि ) समस्त लोकों को ( परि दीयथः ) बसाते और संचालित कर रहे हो । अर्थात् सर्वत्र जीव संसार में रथ चक्रवत् एक स्त्री शरीर दूसरे पुरुष शरीर का संगी होकर नर मादा संसार चला रहे हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पौर आत्रेय ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः - १, २, ४, ५, ७ निचृद-नुष्टुप् ॥ ३, ६, ८,९ अनुष्टुप् । १० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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