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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पौर आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ई॒र्मान्यद्वपु॑षे॒ वपु॑श्च॒क्रं रथ॑स्य येमथुः। पर्य॒न्या नाहु॑षा यु॒गा म॒ह्ना रजां॑सि दीयथः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒र्मा । अ॒न्यत् । वपु॑षे । वपुः॑ । च॒क्रम् । रथ॑स्य । ये॒म॒थुः॒ । परि॑ । अ॒न्या । नाहु॑षा । यु॒गा । म॒ह्ना । रजां॑सि । दी॒य॒थः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईर्मान्यद्वपुषे वपुश्चक्रं रथस्य येमथुः। पर्यन्या नाहुषा युगा मह्ना रजांसि दीयथः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईर्मा। अन्यत्। वपुषे। वपुः। चक्रम्। रथस्य। येमथुः। परि। अन्या। नाहुषा। युगा। मह्ना। रजांसि। दीयथः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैरतः परं किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे स्त्रीपुरुषौ ! वायुसूर्य्याविव यौ युवां रथस्य चक्रमिव वपुषेऽन्यदीर्मा वपुर्येमथुरन्या नाहुषा युगा परियेमथुर्मह्ना रजांसि दीयथस्तौ कालविद्यां ज्ञातुमर्हथः ॥३॥

    पदार्थः

    (ईर्मा) प्राप्तव्यं ज्ञातव्यं वा (अन्यत्) (वपुषे) सुरूपाय (वपुः) सुरूपम् (चक्रम्) चरति येन तत् (रथस्य) (येमथुः) गमयतम् (परि) सर्वतः (अन्या) अन्यानि (नाहुषा) मनुष्याणामिमानि (युगा) युगानि वर्षाणि वर्षसमूहा वा (मह्ना) महत्त्वेन (रजांसि) लोकान् (दीयथः) क्षयथः ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यथा रथचक्राणि भ्रमन्ति तथाऽहर्निशं कालचक्रं भ्रमति येन क्षणादियुगकल्पमहाकल्पादिका गणितविद्या सिद्ध्यतीति वित्त ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को इसके आगे क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे स्त्री और पुरुषो ! वायु और सूर्य्य के सदृश जो तुम (रथस्य) वाहन के (चक्रम्) चलता है जिससे उस पहिये के सदृश (वपुषे) सुन्दर रूप के लिये (अन्यत्) अन्य (ईर्मा) प्राप्त होने वा जानने योग्य (वपुः) सुरूप को (येमथुः) प्राप्त होओ और (अन्या) अन्य (नाहुषा) मनुष्यों के सम्बन्धी (युगा) वर्ष वा वर्षों के समूहों को (परि) सब ओर से प्राप्त होओ और (मह्ना) महत्त्व से (रजांसि) लोकों का (दीयथः) नाश करते हो, वे कालविद्या के जानने योग्य हो ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे रथ के पहिये घूमते हैं, वैसे दिन-रात्रि कालसम्बन्धी चक्र घूमता है, जिससे क्षण आदि तथा युग, कल्प और महाकल्प आदि सम्बन्धी गणितविद्या सिद्ध होती है, ऐसा जानो ॥३॥

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    विषय

    उनको परस्पर बंधने और गृहस्थ चलाने का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा० - आप दोनों (ईर्मा) संसार मार्ग पर जानेवाले युगल स्त्री पुरुष ( रथस्य चक्रम् ) रथ के चक्र के तुल्य ( वपुषे वपुः) एक शरीर के सहारे के लिये ( अन्यत् वपुः ) उससे भिन्न दूसरे शरीर को जानकर परस्पर को ( येमथुः ) नियन्त्रित करते, नियम में बांधते और विवाह बन्धन में बांधते हो। उसी प्रकार ( अन्यः ) अन्य भिन्न २ प्रकार के ( नाहुषा- युगा ) परस्पर बन्धन में बंधने वाले मनुष्यों के जोड़ों को ( परिदीयथः ) चलाते और ( मह्ना ) अपने बड़े भारी सामर्थ्य से ( रजांसि ) समस्त लोकों को ( परि दीयथः ) बसाते और संचालित कर रहे हो । अर्थात् सर्वत्र जीव संसार में रथ चक्रवत् एक स्त्री शरीर दूसरे पुरुष शरीर का संगी होकर नर मादा संसार चला रहे हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पौर आत्रेय ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः - १, २, ४, ५, ७ निचृद-नुष्टुप् ॥ ३, ६, ८,९ अनुष्टुप् । १० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अश्विनी देवों के रथ के दो चक्र

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विनी देवो) = प्राणापानो! आप अपने (रथस्य) = रथ के (अन्यत्) = एक (ईर्म) = सब ग्रन्थियों को [glands को] गतिमय करनेवाले (वपुषे) = शरीर के लिये (वपुः) = सब शक्तियों के बीजों का वपन करनेवाले (चक्रम्) = चक्र को, प्राणरूप चक्र को (येमथुः) = नियमित करते हो । अश्विनी देवों के रथ का एक चक्र प्राण है, तो दूसरा अपान । प्राण सब ग्रन्थियों को क्रियाशील करता हुआ शरीर में शक्ति का संचार करता है । सो प्राण चक्र को 'वपुषे वपुः' कहा है। [२] इस अश्विनी देवों के रथ का दूसरा चक्र 'अपान' है। (अन्या महा) = इस दूसरे के महत्त्व से [अत्यर्त्स्य महिम्ना] (नाहुषा युगा) = इन मानव दम्पतियों के, पति-पत्नी के (रजांसि) = मलों को (परिदीयथः) = शरीर में सर्वत्र विनष्ट करते हो । मलों को दूर करके उनके शरीरों को नीरोग बना देते हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- अश्विनी देवों के रथ का एक 'प्राण' रूप चक्र सब ग्रन्थियों को क्रियाशील बनाकर शक्ति का संचार करता है और दूसरा 'अपान' रूप चक्र मलों को दूर करके शरीर को नीरोग बनाता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जशी रथाची चक्रे फिरतात तसे दिवस-रात्रीचे चक्र फिरते ज्यामुळे क्षण इत्यादी व युग, कल्प महाकल्प इत्यादीसंबंधी गणित विद्या संपन्न होते हे जाणा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, instantly moving harbingers of light and energy, one brilliant wheel of your chariot, one part of your circuit, you have set in motion for the expression of your brilliance by the sun. By the other, like night after the day and by the circle of night and day, you complete the circle of the day and year and thereby with your might and splendour you illuminate the terrestrial and ethereal regions and count up the ages of humanity on earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do after this, is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men and women ! like the air and sun, your wheel of the car roams about and you beautify your body by knowing proper means. You acquire knowledge of the human cycle which is moving the great (circle of planets. Ed.), in accordance with the system (systematically. Ed.), designed by God and decays at the end. You can know the science of fire. (energy. Ed.).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! as the spokes of the wheel revolve, so the cycle of time revolves day and night. By this, the mathematics consisting of the knowledge of time and beginning with a moment and ending in Yuga (era) Kalpa and Maha Kalpa (different pieces of Infinite time. Ed.) etc is evolved. This you should know.

    Foot Notes

    (ईर्मा ) प्राप्तव्यं ज्ञातव्यं वा | = Worthy of being attained or known. (येमथु:) गमयतम्| = Movе, set in motion. (नाहुषा) मनुष्यानामिमानि| = Belonging to the human race. (दीयथ:) क्षयथ: । (दीङ् ) क्षये ( दिवा० )| = Decay.

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