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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 73/ मन्त्र 5
    ऋषिः - पौर आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ यद्वां॑ सू॒र्या रथं॒ तिष्ठ॑द्रघु॒ष्यदं॒ सदा॑। परि॑ वामरु॒षा वयो॑ घृ॒णा व॑रन्त आ॒तपः॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यत् । वा॒म् । सू॒र्या । रथ॑म् । तिष्ठ॑त् । र॒घु॒ऽस्यद॑म् । सदा॑ । परि॑ । वा॒म् । अ॒रु॒षाः । वयः॑ । घृ॒णा । व॒र॒न्ते॒ । आ॒तपः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यद्वां सूर्या रथं तिष्ठद्रघुष्यदं सदा। परि वामरुषा वयो घृणा वरन्त आतपः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यत्। वाम्। सूर्या। रथम्। तिष्ठत्। रघुऽस्यदम्। सदा। परि। वाम्। अरुषाः। वयः। घृणा। वरन्ते। आऽतपः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 73; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स्त्रियः कीदृशो भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यद्या घृणारुषा सूर्योषा इव स्त्री वां रघुष्यदं रथमातिष्ठत् वां वयः परि वरन्ते सा आतप इव सदोपकारिणी भवति ॥५॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (यत्) या (वाम्) युवयोः (सूर्या) सूर्य्यसम्बन्धिन्युषा इव (रथम्) विमानादियानम् (तिष्ठत्) तिष्ठति (रघुष्यदम्) या लघु स्यन्दति सा (सदा) निरन्तरम् (परि) (वाम्) युवयोः (अरुषाः) रक्तभास्वरगुणाः (वयः) पक्षिणः (घृणा) दीप्तिः (वरन्ते) स्वीकुर्वन्ति (आतपः) समन्तात् प्रतापकः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा प्रातर्वेला सर्वथा प्रिया सुखप्रदा वर्त्तते तथा परस्परं प्रीतौ स्त्रीपुरुषौ प्रसन्नौ वर्त्तेते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर स्त्रियाँ कैसी हों, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यत्) जो (घृणा) प्रकाशित (अरुषाः) लाल चमकते हुए गुणोंवाली (सूर्या) सूर्य्यसम्बन्धिनी प्रातर्वेला के सदृश स्त्री (वाम्) तुम्हारे (रघुष्यदम्) थोड़े चलनेवाले (रथम्) विमान आदि वाहन पर (आ) सब प्रकार से (तिष्ठत्) स्थित होती है, जिसको (वाम्) आप दोनों के (वयः) पक्षी (परि, वरन्ते) सब ओर से स्वीकार करते हैं, वह (आतपः) चारों और से उष्ण करनेवाले घर्म्म के सदृश (सदा) सब काल में उपकार करनेवाली होती है ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे प्रातःकाल सब प्रकार से प्रिय और सुखकारक है, वैसे परस्पर प्रीतियुक्त स्त्री पुरुष प्रसन्न रहते हैं ॥५॥

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    विषय

    उत्तम काम का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०- (यत्) जब (वा) आप वर वधू दोनों में से (सूर्या) उषा के समान कान्तिमती, सूर्यवत् तेजस्विनी, उत्तम ऐश्वर्यवती, सन्तान उत्पादन करने में समर्थ स्त्री सदा ( रघु-स्यदं ) वेग से जाने वाले ( रथम् ) रथवत् रमण करने योग्य गृहस्थ आश्रम को ( अतिष्ठत् ) धारण करती है, तब ही वर वधू ! ( वाम् परि ) आप दोनों के ऊपर ( अरुषाः ) दीप्ति युक्तः ( घृणाः ) जल सेचन करने वाले ( आतपः) खूब तपने वाले सूर्य किरण जिस प्रकार ( आवरन्त ) आवरण करते या पड़ते हैं उसी प्रकार गृहस्थ में आप दोनों के ऊपर ( अरुषाः ) रोष रहित, सौम्य ( घृणाः ) ज्ञान, स्नेह का प्रवाह बहाने वाले, दया स्नेह के सेचन एवं उस द्वारा पोषण करने वाले, (आतपः ) सब प्रकार से तपस्वी, जन ( आ वरन्त) तुम को आवृत करें, तुम्हारी रक्षा करें और तुम्हें प्राप्त हों । इत्येकादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पौर आत्रेय ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः - १, २, ४, ५, ७ निचृद-नुष्टुप् ॥ ३, ६, ८,९ अनुष्टुप् । १० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    तथेन्द्रियाणां दरुयन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विनी) देवो! (यद्) = जब (वां रघुष्यदम्) = तीव्र गतिवाले (रथम्) = रथ पर (सूर्या) = सूर्यपुत्री-सूर्यवत् देदीप्यमान ज्ञानदीप्ति सदा (आतिष्ठत्) = सदा स्थित होती है। प्राणसाधना के द्वारा यह शरीर-रथ शक्ति-सम्पन्न व गतिशील बनता है और मलिनताओं का विनाश होकर हमारा ज्ञान दीप्त हो उठता है। यही अश्विनी देवों के रथ पर सूर्या का अधिष्ठान है। [२] उस समय हे प्राणापानो ! (वाम्) = आपको (वयः) = [वि= horse] वे इन्द्रियाश्व (परिवरन्ते) = वरण करते हैं, जो (अरुषा:) = आरोचमान हैं (घृणा:) = दीप्त हैं और (आतपः) = सर्वत शत्रुओं के संतापक हैं । वस्तुतः प्राणसाधना इन्द्रियों को निर्दोष बनाकर उन्हें आरोचमान व दीप्त बना देती है। इस स्थिति में ये इन्द्रियाश्व आक्रामक 'विषयवासना' रूप शत्रुओं का विनाश करनेवाले होते हैं, अर्थात् इन्द्रियाँ विषयों में फँसती नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से शरीर-रथ गतिमय व प्रकाशवाला बनता है। इस रथ में इन्द्रियाश्व आरोचमान दीप्त व शत्रु-संतापक होते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रातःकाळची वेळ सदैव प्रिय व सुखदायक असते. तसे स्त्री-पुरुषांनी प्रेमाने व प्रसन्नतेने वागावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When the dawn, daughter of the sun, like a bride, comes and rides your fast moving chariot, ruddy, shining and blazing, birds, beasts and humans always look up to you and adore you all round.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should women be is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! that woman is benevolent like the sun which always, shines or is doer of good to all. She is full of splendour like the dawn of the sun (day. Ed.) and who mounts on your charming and rapid vehicle in the form of the aircraft etc. The birds also like to fly and follow the example of an aircraft.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the dawn of the early morning is endearing to all and bestower of happiness, in the same manner, the husbands and wives who love each other are always cheerful.

    Foot Notes

    (सूर्य्या) सूर्य संबन्धिन्युषाः इव । अरुषी इति उषीनाम (NG 118) अत्र अराषा तस्मिन्नेबार्थे । = Like the dawn belonging to the sun. (घृणा) दीप्ति: । घु-क्षरणदीप्त्योः (जुहो०) अत्र दीप्त्यर्थः । = Radiance splendour.

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