ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
आ भा॑त्य॒ग्निरु॒षसा॒मनी॑क॒मुद्विप्रा॑णां देव॒या वाचो॑ अस्थुः। अ॒र्वाञ्चा॑ नू॒नं र॑थ्ये॒ह या॑तं पीपि॒वांस॑मश्विना घ॒र्ममच्छ॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । भा॒ति॒ । अ॒ग्निः । उ॒षसा॑म् । अनी॑कम् । उत् । विप्रा॑णाम् । दे॒व॒ऽयाः । वाचः॑ । अ॒स्थुः॒ । अ॒र्वाञ्चा॑ । नू॒नम् । र॒थ्या॒ । इ॒ह । या॒त॒म् । पी॒पि॒ऽवांस॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । घ॒र्मम् । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ भात्यग्निरुषसामनीकमुद्विप्राणां देवया वाचो अस्थुः। अर्वाञ्चा नूनं रथ्येह यातं पीपिवांसमश्विना घर्ममच्छ ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। भाति। अग्निः। उषसाम्। अनीकम्। उत्। विप्राणाम्। देवऽयाः। वाचः। अस्थुः। अर्वाञ्चा। नूनम्। रथ्या। इह। यातम्। पीपिऽवांसम्। अश्विना। घर्मम्। अच्छ ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - दो अश्वी । रथी सारथिवत् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के परस्पर के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा० - ( अग्निः उषसाम् अनीकम् ) जब सूर्य उषाओं के मुखवत् प्रकाशित होता है और ( विप्राणाम् ) विद्वान् पुरुषों की ( देवयाः ) ईश्वर को लक्ष्य कर निकलने वाली ( वाचः ) वाणियां ( उत् अस्थुः ) उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय, रथी सारथिवत् एक गृहस्थ रथ पर स्थित स्त्री पुरुषो ! ( उषासम् ) शत्रुओं के दल को दग्ध करने वाली, राष्ट्र को वश करने वाली सेनाओं के ( अनीकम् ) समूह को प्राप्त कर उनका प्रमुख (अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी नायक (आ भाति) सूर्यवत् सब तरफ प्रकाशित होता है । उस समय ( विप्राणां ) विद्वानों की ( देवयाः वाचः ) तेजस्वी, दानशील विजिगीषु को लक्ष्य करके निकलने वाली वाणियां (उद् अस्थुः ) उत्पन्न होती हैं । अतः हे स्त्री पुरुषो ! ( नूनं ) निश्चय से ( रथ्या ) रथ पर स्थित महारथियों के समान आप दोनों (अर्वाञ्चा ) अश्व के बल से जाने वाले होकर ( इह ) इसी राष्ट्र में (पीपिवांसम् ) अच्छी प्रकार बढ़ने वाले, अन्यों को बढ़ाने वाले (धर्मम्) तेजस्वी, सुखों को सेचन करने में समर्थ, मेघ वा सूर्यवत् निष्पक्ष, दानशील विद्वान् पुरुष वा गृह्य यज्ञ, प्रभु वा राजा को ( अच्छ यातम् ) भली प्रकार प्राप्त होवो ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्द:- १, २ स्वराट् पंक्ति: । ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
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