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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अत्रिः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रा॒तर्य॑जध्वम॒श्विना॑ हिनोत॒ न सा॒यम॑स्ति देव॒या अजु॑ष्टम्। उ॒तान्यो अ॒स्मद्य॑जते॒ वि चावः॒ पूर्वः॑पूर्वो॒ यज॑मानो॒ वनी॑यान् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒तः । य॒ज॒ध्व॒म् । अ॒श्विना॑ । हि॒नो॒त॒ । न । सा॒यम् । अ॒स्ति॒ । दे॒व॒ऽयाः । अजु॑ष्टम् । उ॒त । अ॒न्यः । अ॒स्मत् । य॒ज॒ते॒ । वि । च॒ । आवः॒ । पूर्वः॑ऽपूर्वः । यज॑मानः । वनी॑यान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रातर्यजध्वमश्विना हिनोत न सायमस्ति देवया अजुष्टम्। उतान्यो अस्मद्यजते वि चावः पूर्वःपूर्वो यजमानो वनीयान् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातः। यजध्वम्। अश्विना। हिनोत। न। सायम्। अस्ति। देवऽयाः। अजुष्टम्। उत। अन्यः। अस्मत्। यजते। वि। च। आवः। पूर्वःऽपूर्वः। यजमानः। वनीयान् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    भा०-हे प्रजा जनो ! ( अश्विना ) अश्वादि के नायकों और उत्तम जितेन्द्रिय पुरुषों का ( प्रातः ) दिन के पूर्व काल में ( सायम् ) और सायं समय में भी ( यजध्वम् ) सत्संग किया करो। और उनको ( हिनोतं ) प्रसन्न, तृप्त करो, बढ़ाया करो ( देवयाः ) विद्वान् पुरुषों के आदर करने योग्य पदार्थ ( अजुष्टम् न अस्ति ) प्रीति से सेवन करने के अयोग्य ( न ) नहीं होता प्रत्युत देव जन आदर से दिये को सदा ही प्रेम से स्वीकार करते हैं । ( उत ) और जो ( अस्मत् ) हम से ( अन्यः ) दूसरा कोई भी ( यजते ) उत्तन ज्ञान दान करता है और (वि अवः च) विशेष रूप से हमें प्रेम पूर्वक अन्नादि देता या तृप्त करता है वह भी (पूर्वः पूर्वः ) हम से पूर्व पूर्व अर्थात् वयस् और विद्या में वृद्ध पुरुष भी ( यजमानः ) दान सत्संग यज्ञादि करने वाला ( वनीयान् ) अति उत्तम रीति से सेवा करने योग्य होता है, वह भी आदर करने योग्य है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः ।। अश्विनौ देवते । त्रिष्टुप् छन्दः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।

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