ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 78/ मन्त्र 3
अश्वि॑ना वाजिनीवसू जु॒षेथां॑ य॒ज्ञमि॒ष्टये॑। हं॒सावि॑व पतत॒मा सु॒ताँ उप॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअश्वि॑ना । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । जु॒षेथा॑म् । य॒ज्ञम् । इ॒ष्टये॑ । हं॒सौऽइ॑व । प॒त॒त॒म् । आ । सु॒तान् । उप॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विना वाजिनीवसू जुषेथां यज्ञमिष्टये। हंसाविव पततमा सुताँ उप ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअश्विना। वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू। जुषेथाम्। यज्ञम्। इष्टये। हंसौऽइव। पततम्। आ। सुतान्। उप ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 78; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
विषय - दो हंसों और हरिणों के दृष्टान्त से उनके कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ -
भा०-हे ( अश्विनौ ) रथी सारथिवत् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! हे ( वाजिनीवसू ) ज्ञान-ऐश्वर्य बल आदि से युक्त कर्म करने में निष्ठ आप दोनों (इष्टये ) देवपूजन, दान, सत्संग मैत्रीभाव की वृद्धि के लिये ( यज्ञम् ) यज्ञ, परस्पर सौहार्द, सत्संग आदि का ( जुषेथाम् ) सेवन प्रेमपूर्वक किया करो । ( सुतान् उप हंसौ इव आ पततम् ) पुत्रों और उत्पन्न आदि ऐश्वर्यो को प्राप्त करने के किये दो हंसों के समान सहयोगी होकर ( हंसौ ) एक साथ मार्ग पर गमन करते हुए जाया करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सप्तवध्रिरात्रेय ऋषिः।। अश्विनौ देवते । ७, ९ गर्भस्राविणी उपनिषत् ॥ छन्दः— १, २, ३ उष्णिक् । ४ निचृत्-त्रिष्टुप् । ५, ६ अनुष्टुप् । ७, ८, ९ निचृद्-नुष्टुप् ।।
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