ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
अच्छा॑ वद त॒वसं॑ गी॒र्भिरा॒भिः स्तु॒हि प॒र्जन्यं॒ नम॒सा वि॑वास। कनि॑क्रदद्वृष॒भो जी॒रदा॑नू॒ रेतो॑ दधा॒त्योष॑धीषु॒ गर्भ॑म् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । व॒द॒ । त॒वस॑म् । गीः॒ऽभिः । आ॒भिः । स्तु॒हि । प॒र्जन्य॑म् । नम॑सा । वि॒वा॒स॒ । कनि॑क्रदत् । वृ॒ष॒भः । जी॒रऽदा॑नुः । रेतः॑ । द॒धा॒ति॑ । ओष॑धीषु । गर्भ॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा वद तवसं गीर्भिराभिः स्तुहि पर्जन्यं नमसा विवास। कनिक्रदद्वृषभो जीरदानू रेतो दधात्योषधीषु गर्भम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ। वद। तवसम्। गीःऽभिः। आभिः। स्तुहि। पर्जन्यम्। नमसा। आ। विवास। कनिक्रदत्। वृषभः। जीरऽदानुः। रेतः। दधाति। ओषधीषु। गर्भम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
विषय - पर्जन्य मेघवत् राष्ट्रपालक का वर्णन ।
भावार्थ -
भा०—हे विद्वन्! तू (आभिः) इन ( गीर्भिः) वाणियों से (तत्रसं) बलवान् (पर्जन्यं) शत्रुओं को पराजय करने में समर्थ, और मेघ के तुल्य प्रजाओं को समृद्धि सुखों से तृप्त और जनों का हित करनेवाले पुरुष के (स्तुहि) गुणों का वर्णन किया कर और (अच्छ वद ) उसका उपदेश कर जो वस्तुतः मेघ के समान समस्त संसार को (नमसा ) अन्न से और शासन दण्ड से (वि-वास) विविध प्रकार से बसाता है, जो ( वृषभः ) बड़े बैल के समान बलवान्, वर्षणशील मेघ के तुल्य ( कनिक्रदत् ) गर्जता और ( जीर-दानुः ) जलवत् जीवनसाधन प्रदान करता हुआ ( ओषधीषु ) वृक्षों और लताओं के समान शत्रुसंतापक बल को धारण करने वाली सेनाओं में ( रेतः ) जलवत् बल ( दधाति ) धारण कराता है । और (गर्भम् दधाति ) उनके ही बल पर गृहीत राष्ट्र का पालन करता है । मेघ भी वनस्पतियों पर जल बरसाता और उनमें फल प्रसवार्थ गर्भ धारण करता है, एवं पृथिवी पर नाना ओषधियों के उत्पादनार्थ गर्भ धारण कराता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः। पर्जन्यो देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप, । ३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० भुरिक् पंक्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥
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