ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 85/ मन्त्र 2
वने॑षु॒ व्य१॒॑न्तरि॑क्षं ततान॒ वाज॒मर्व॑त्सु॒ पय॑ उ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्सु क्रतुं॒ वरु॑णो अ॒प्स्व१॒॑ग्निं दि॒वि सूर्य॑मदधा॒त्सोम॒मद्रौ॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठवने॑षु । वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । त॒ता॒न॒ । वाज॑म् । अर्व॑त्ऽसु । पयः॑ । उ॒स्रिया॑सु । हृ॒त्ऽसु । क्रतु॑म् । वरु॑णः । अ॒प्ऽसु । अ॒ग्निम् । दि॒वि । सूर्य॑म् । अ॒द॒धा॒त् । सोम॑म् । अद्रौ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वनेषु व्य१न्तरिक्षं ततान वाजमर्वत्सु पय उस्रियासु। हृत्सु क्रतुं वरुणो अप्स्व१ग्निं दिवि सूर्यमदधात्सोममद्रौ ॥२॥
स्वर रहित पद पाठवनेषु। वि। अन्तरिक्षम्। ततान। वाजम्। अर्वत्ऽसु। पयः। उस्रियासु। हृत्ऽसु। क्रतुम्। वरुणः। अप्ऽसु। अग्निम्। दिवि। सूर्यम्। अदधात्। सोमम्। अद्रौ ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 85; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
विषय - राजा के राष्ट्रोपयोगी कर्त्तव्य । पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ -
भा० - वह ( वरुणः ) उत्तम पद के लिये वरण करने योग्य राजा ( वनेषु ) सूर्यवत् भोग्य पदार्थो वा वन उपवनों में ( अन्तरिक्षं ) जल को ( वि ततान ) विविध उपायों से प्रसारित करे । ( अर्वत्सु वाजम् ) अश्वों में वेग और अश्व सैन्यों के आधार पर संग्राम की ( अदधात् ) तैयारी या योजना करे । ( उस्त्रियासु पयः ) गोओं में पुष्टि कारक दूध, भूमियों में जल और अन्न को ( अदधात् ) पुष्ट करे और जो ( हृत्सु ) हृदयों में ( क्रतुं ) ज्ञान को ( अदधात् ) स्थापित करे, ( अप्सु अग्निम् ) जलों में अग्निवत् प्रजाओं में ज्ञानवान् और तेजस्वी पुरुष को नेता को ( अदधात् ) नियत करे । वह (दिवि सूर्यम् अदधात् ) आकाश में सूर्य के समान इस पृथिवी में तेजस्वी पुरुष को और ज्ञान रक्षा में सर्वप्रकाशक विद्वान् को प्रधान पद पर स्थापित करे, और ( अद्रौ सोमम् अदधात् ) मेघ में जल और पर्वत पर ओषधिवत् शस्त्र बल पर ऐश्वर्य को पुष्ट वा धारण करे । (2) परमेश्वर ने सूक्ष्म जलों में या वृक्षों के ऊपर भी आकाश ताना है, अश्वों में वेग, गोओं में दूध, भूमियों में जल, अन्न, हृदय में कर्म और ज्ञान सामर्थ्य, समुद्रों में बड़वानल, वा रसों में विद्युत्, आकाश में सूर्य, मेघों में जल, पर्वतों पर सोम आदि ओषधि वर्ग बनाया है । वही 'वरुण' सर्वोपास्य है ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः - १, २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६,८ , निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् पंक्ति: । ७ ब्राह्मयुष्णिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
इस भाष्य को एडिट करें