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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 85/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अत्रिः देवता - वरुणः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नी॒चीन॑बारं॒ वरु॑णः॒ कव॑न्धं॒ प्र स॑सर्ज॒ रोद॑सी अ॒न्तरि॑क्षम्। तेन॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ राजा॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्व्यु॑नत्ति॒ भूम॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नी॒चीन॑ऽबारम् । वरु॑णः । कव॑न्धम् । प्र । स॒स॒र्ज॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । तेन॑ । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । राजा॑ । यव॑म् । न । वृ॒ष्टिः । वि । उ॒न॒त्ति॒ । भूम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नीचीनबारं वरुणः कवन्धं प्र ससर्ज रोदसी अन्तरिक्षम्। तेन विश्वस्य भुवनस्य राजा यवं न वृष्टिर्व्युनत्ति भूम ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नीचीनऽबारम्। वरुणः। कवन्धम्। प्र। ससर्ज। रोदसी इति। अन्तरिक्षम्। तेन। विश्वस्य। भुवनस्य। राजा। यवम्। न। वृष्टिः। वि। उनत्ति। भूम ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 85; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    भा०- ( वरुणः ) प्रजा के कष्टों का वारण करने वाला सम्राट् राजा ( कबन्धं ) जल को ( नीचीनवारं ) नीचे के स्थानों में नाना धाराओं में विभक्त होकर बहने वाला करें । अर्थात् पर्वत आदि उच्च स्थलों में स्थित जल को नीचे के प्रदेशों में नहरों या नलों द्वारा बहाकर सेचन आदि का प्रबन्ध करे । वह ( रोदसी ) आकाश और भूमि, शासक और शास्य वर्ग दोनों के बीच ( अन्तरिक्षम् ) अन्तःकरण में बसने वाला, जलवत् पारस्परिक स्नेह उत्पन्न करे । ( तेन ) उससे ( विश्वस्य भुवनस्य राजा ) समस्त 'भुवन', भूगोल का राजा ( वृष्टिः भूम यवं न ) जो के बड़े और बहुत से यव के खेतों को वृष्टि के समान सुखदायक होकर ( भूम) बहुत से प्रजाजनों को ( वि-उनत्ति ) विविध उपायों से स्नेहार्द्र करे । ( २ ) परमेश्वर मेघ जलआदि बनाता विश्व का राजा होकर सबके हृदयों को दर्यार्द्र करता करुणा जलों से संचता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः - १, २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ६,८ , निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् पंक्ति: । ७ ब्राह्मयुष्णिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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