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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वां वा॒जी ह॑वते वाजिने॒यो म॒हो वाज॑स्य॒ गध्य॑स्य सा॒तौ। त्वां वृ॒त्रेष्वि॑न्द्र॒ सत्प॑तिं॒ तरु॑त्रं॒ त्वां च॑ष्टे मुष्टि॒हा गोषु॒ युध्य॑न् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । वा॒जी । ह॒व॒ते॒ । वा॒जि॒ने॒यः । म॒हः । वाज॑स्य । गध्य॑स्य । सा॒तौ । त्वाम् । वृ॒त्रेषु॑ । इ॒न्द्र॒ । सत्ऽप॑तिम् । तरु॑त्रम् । त्वाम् । च॒ष्टे॒ । मु॒ष्टि॒ऽहा । गोषु॑ । युध्य॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां वाजी हवते वाजिनेयो महो वाजस्य गध्यस्य सातौ। त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं तरुत्रं त्वां चष्टे मुष्टिहा गोषु युध्यन् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। वाजी। हवते। वाजिनेयः। महः। वाजस्य। गध्यस्य। सातौ। त्वाम्। वृत्रेषु। इन्द्र। सत्ऽपतिम्। तरुत्रम्। त्वाम्। चष्टे। मुष्टिऽहा। गोषु। युध्यन् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( वाजिनेयः वाजी ) ज्ञान से युक्त माता पिता वा आचार्य का पुत्र, शिक्षित विद्वान् पुरुष ( महः वाजस्य सातौ) बड़े भारी ज्ञान को प्राप्त करने और विभाग करने के लिये गुरु को (हवते ) स्वीकार करता है उसी प्रकार ( वाजिनेयः ) ‘वाजिनी’ अर्थात् बलवती सेना के योग्य (वाजी ) बलवान् शूरवीर पुरुष भी ( महः ) उत्तम, देने योग्य, ( गध्यस्य ) सबको प्राप्त होने योग्य ( वाजस्य ) ऐश्वर्य या अन्न, वेतनादि के ( सातौ ) प्राप्त करने के लिये है ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! (त्वां हवते) तुझ स्वामी को अपनाता है । इसी प्रकार ( गोषु ) भूमि को विजय करने के निमित्त ( युद्धयन् ) युद्ध करता हुआ वीर पुरुष ( मुष्टि-हा ) मुट्ठी के समान पांचों का समवाय या संघ बना कर शत्रु को नाश करने में समर्थ वा (मुष्टि-हा) ‘मुष्टि’, चोरी आदि उपद्रवों का नाशक पुरुष भी ( वृत्रेषु ) बढ़ते शत्रु रूप विघ्नों के बीच वा नाना धनों को प्राप्त करने के लिये भी ( त्वां सत्पति ) तुझको ही सत्पालक और ( त्वां तरुत्रं ) तुझको वृक्षवत् आश्रयदाता, रक्षक, वा संकटों से पार पहुंचाने वाला ( चष्टे ) देखता वा कहता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २, ४ भुरिक पंक्तिः। ३ निचृत् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्त्रिष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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