ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
अस्मा॑ ए॒तद्दि॒व्य१॒॑र्चेव॑ मा॒सा मि॑मि॒क्ष इन्द्रे॒ न्य॑यामि॒ सोमः॑। जनं॒ न धन्व॑न्न॒भि सं यदापः॑ स॒त्रा वा॑वृधु॒र्हव॑नानि य॒ज्ञैः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठअस्मै॑ । ए॒तत् । दि॒वि । अ॒र्चाऽइ॑व । मा॒सा । मि॒मि॒क्षः । इन्द्रे॑ । नि । अ॒या॒मि॒ । सोमः॑ । जन॑म् । न । धन्व॑न् । अ॒भि । सम् । यत् । आपः॑ । स॒त्राः । व॒वृ॒धुः॒ । हव॑नानि । य॒ज्ञैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा एतद्दिव्य१र्चेव मासा मिमिक्ष इन्द्रे न्ययामि सोमः। जनं न धन्वन्नभि सं यदापः सत्रा वावृधुर्हवनानि यज्ञैः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै। एतत्। दिवि। अर्चाऽइव। मासा। मिमिक्षः। इन्द्रे। नि। अयामि। सोमः। जनम्। न। धन्वन्। अभि। सम्। यत्। आपः। सत्राः। ववृधुः। हवनानि। यज्ञैः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
विषय - अमावास्या में सूर्य में चन्द्रवत् परमात्मा में जीव की एकता ।
भावार्थ -
( दिवि इन्द्रे मासा यथा सोमः मिमिक्षे ) आकाश तेजोमय सूर्य में जिस प्रकार ‘सोम’ अर्थात् चन्द्र एक मास के बाद ( मिमिक्षे ) उसके साथ मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार ( एतत् सोमः ) यह उत्पन्न होने वाला जीव, विद्वान् पुरुष, ( अस्मै ) अपने सुधार के लिये ही अपने जीव को भी (दिवि इन्द्रे) कामना योग्य ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर में ( अर्चा एव ) अर्चना द्वारा ही, ( सं मिमिक्षे) मिल जाता है, इसी प्रकार यह जीव भी ( नि अयामि ) नम्र, विनीत होकर प्राप्त हो । ( धन्वन् ) अन्तरिक्ष या मरुस्थल में जैसे ( आपः सम् अभि ववृधुः ) जल किसी को बढ़ाते या शक्ति युक्त करते हैं उसी प्रकार ( आप :) आप्त प्रजाजन ( सत्रा) सदा ( यज्ञैः ) यज्ञों द्वारा ( हवनानि वावृधुः ) हवनों को बढ़ाते हैं, उसी प्रकार हम यज्ञों द्वारा उस प्रभु का यश बढ़ावें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुनहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप् छन्दः ॥ पञ्चर्चं सूक्कम् ।।
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