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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    द्यावो॒ न यस्य॑ प॒नय॒न्त्यभ्वं॒ भासां॑सि वस्ते॒ सूर्यो॒ न शु॒क्रः। वि य इ॒नोत्य॒जरः॑ पाव॒कोऽश्न॑स्य चिच्छिश्नथत्पू॒र्व्याणि॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यावः॑ । न । यस्य॑ । प॒नय॑न्ति । अभ्व॑म् । भासां॑सि । व॒स्ते॒ । सूर्यः॑ । न । शु॒क्रः । वि । यः । इ॒नोति॑ । अ॒जरः॑ । पा॒व॒कः । अश्न॑स्य । चि॒त् । शि॒श्न॒थ॒त् । पू॒र्व्याणि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यावो न यस्य पनयन्त्यभ्वं भासांसि वस्ते सूर्यो न शुक्रः। वि य इनोत्यजरः पावकोऽश्नस्य चिच्छिश्नथत्पूर्व्याणि ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यावः। न। यस्य। पनयन्ति। अभ्वम्। भासांसि। वस्ते। सूर्यः। न। शुक्रः। वि। यः। इनोति। अजरः। पावकः। अश्नस्य। चित्। शिश्नथत्। पूर्व्याणि ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    ( यस्य ) जिस परमेश्वर के ( अभ्वं ) महान् सामर्थ्य को ( द्यावः न ) ये समस्त चमकने वाले सूर्य, नक्षत्र आदि गण, किरणों के समान ( पनयन्ति ) स्तुति करते हैं और जो ( सूर्यः न ) सूर्य के समान ( शुक्रः ) कान्तिमान् स्वयं तेजःस्वरूप होकर ( भासांसि ) समस्त ज्योतियों को ( वस्ते ) आच्छादित या वस्त्रों को पुरुष के समान धारण करता है । (यः ) जो ( अजरः ) जरा मरणादि से रहित (पावकः ) सबको पवित्र करने वाला, अग्निवत् तेजस्वी, परम पावन होकर ( वि इनोति ) विविध प्रकार से व्यापता है, वह ही अग्नि जिस प्रकार ( अश्नस्य पूर्व्याणि शिश्नथत् ) भोजन के दृढ़ रूपों को शिथिल कर देता है उसी प्रकार वह परमेश्वर ( अश्नस्य ) भोक्ता जीव के भोग्य कर्म फलादि के (पूर्व्याणि) पूर्व के किये कर्म बन्धनों को ( शिश्नथत् ) शिथिल कर देता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ भुरिक् पंक्ति: । ३, ४ निचृत् पंक्तिः । ८ पंक्ति: । अष्टर्चं सूक्तम् ।

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