ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
उदु॒ त्यच्चक्षु॒र्महि॑ मि॒त्रयो॒राँ एति॑ प्रि॒यं वरु॑णयो॒रद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॒ शुचि॑ दर्श॒तमनी॑कं रु॒क्मो न दि॒व उदि॑ता॒ व्य॑द्यौत् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । त्यत् । चक्षुः॑ । महि॑ । मि॒त्रयोः॑ । आ । एति॑ । प्रि॒यम् । वरु॑णयोः । अद॑ब्धम् । ऋ॒तस्य॑ । शुचि॑ । द॒र्श॒तम् । अनी॑कम् । रु॒क्मः । न । दि॒वः । उत्ऽइ॑ता॑ । वि । अ॒द्यौ॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यच्चक्षुर्महि मित्रयोराँ एति प्रियं वरुणयोरदब्धम्। ऋतस्य शुचि दर्शतमनीकं रुक्मो न दिव उदिता व्यद्यौत् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ऊँ इति। त्यत्। चक्षुः। महि। मित्रयोः। आ। एति। प्रियम्। वरुणयोः। अदब्धम्। ऋतस्य। शुचि। दर्शतम्। अनीकम्। रुक्मः। न। दिवः। उत्ऽइता। वि। अद्यौत् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - मित्र रूप स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( मित्रयोः वरुणयोः महि चक्षुः ऋतस्य दर्शतम्, अनीकं, दिवः रुक्मन्, उदिता वि अद्यौत्) मित्र, दिन, वरुण रात्रि इन दोनों में वह बड़ा, नेत्रवत् सूर्य प्रकाश दिखाने वाले मुख के समान और आकाश के स्वर्ण के समान, उदय काल में विशेष रूप से चमकता है उसी प्रकार ( मित्रयोः ) एक दूसरे को सदा प्रेम करने वाले ( वरुणयोः ) एक दूसरे का परस्पर वरण करने वाले, उत्तम वर वधू, दोनों की ( त्यत् ) वह ( महि ) बड़ी, ( प्रियं चक्षुः ) प्रिय, एक दूसरे को तृप्त और प्रसन्न करने वाली आंख ( अदब्धम् ) एक दूसरे से अहिंसित, अर्थात् अपीड़ित होकर विना बाधा के ( एति ) एक दूसरे को प्राप्त हो । वे दोनों सदा परस्पर प्रेम, आदर, उत्सुकता और निःसंकोच भाव से देखा करें । वह ( दर्शतम् ) देखने योग्य वा (ऋतस्य दर्शतम् ) सत्य ज्ञान को दिखाने वाली, ( शुचि ) पवित्र, निर्मल, निष्पाप, ( अनीकम् ) मुखवत् दर्शनीय, सैन्यवत् एक दूसरे का विजय करने वाली, चक्षु भी, ( दिवः रुक्मः न ) मानो कामनायुक्त कामिनी का स्वर्णमय आभूषण हो, ऐसे ( दिवः ) कामना करने वाली स्त्री के ( उदिता ) उद्गमन काल में ( रुक्मः ) रुचि अर्थात् अभिलाषाओं का ज्ञापक होकर ( वि अद्यौत् ) विविध भावों, विशेष सौहार्दों को प्रकट करे । अथवा – वह चक्षु, दर्शनीय शुद्ध पवित्र, मुख को आभूषणवत् प्रकाशित करे, इसी प्रकार परस्पर मित्र, और परस्पर के वरण करने वाले, अध्यापक शिष्य और राजा और प्रजावर्गों के आंखों में स्नेह आदि सदा विद्यमान हो, वह विवेकपूर्ण, सत्यज्ञान और न्याय के पवित्र सुन्दर मुख को उज्ज्वल करे । इसी प्रकार सत्यासत्य को दिखाने वाले नेत्र के तुल्य वेदज्ञ पुरुष भी सब स्त्री पुरुषों को प्रिय, अहिंसित, पवित्र, भूमि का भूषणवत्, सूर्यवत् तेजस्वी हो ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें