ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
य ए॑नमा॒दिदे॑शति कर॒म्भादिति॑ पू॒षण॑म्। न तेन॑ दे॒व आ॒दिशे॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । ए॒न॒म् । आ॒ऽदिदे॑शति । क॒र॒म्भ॒ऽअत् । इति॑ । पू॒षण॑म् । न । तेन॑ । दे॒वः । आ॒ऽदिशे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य एनमादिदेशति करम्भादिति पूषणम्। न तेन देव आदिशे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। एनम्। आऽदिदेशति। करम्भऽअत्। इति। पूषणम्। न। तेन। देवः। आऽदिशे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - प्रजापोषक पूषा राजा । अयाचित दाता प्रभु ।
भावार्थ -
(यः) जो विद्वान् ( एनं पूषणम् ) उस प्रजा के पोषक राजा वा प्रभु को ( करम्भात् ) स्वयं कर्म फल का भोक्ता होकर इस रूप से (आ दिदेशति) उस प्रभु की स्तुति करता है ( तेन ) उसे ( देवः ) कर्म फल देने वाले प्रभु से ( आदिशे न ) कार्य-फल की याचना करने की आवश्यकता नहीं । वह प्रभु विना मांगे ही स्वयं कर्म करने पर फल देता ही है ।
टिप्पणी -
(करम्भः ) करोतेरम्भच् ॥ उ०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः – १, ४, ५ गायत्री । २, ३ निचृद्गायत्री । ६ स्वराडुष्णिक् ।।
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