ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - पूषा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒त धा॒ स र॒थीत॑मः॒ सख्या॒ सत्प॑तिर्यु॒जा। इन्द्रो॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नते ॥२॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । घ॒ । सः । र॒थिऽत॑मः । सख्या॑ । सत्ऽप॑तिः । यु॒जा । इन्द्रः॑ । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत धा स रथीतमः सख्या सत्पतिर्युजा। इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते ॥२॥
स्वर रहित पद पाठउत। घ। सः। रथिऽतमः। सख्या। सत्ऽपतिः। युजा। इन्द्रः। वृत्राणि। जिघ्नते ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
विषय - सत्पति इन्द्र । आत्मा ।
भावार्थ -
( उत ) और (घ ) निश्चय से ( सः ) वह ( रथीतमः ) उत्तम रथ का स्वामी, (सख्या युजा) मित्र सहायक से (सत्-पतिः) सज्जनों का प्रतिपालक है । वह ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता ऐश्वर्यवान् होकर (वृत्राणि ) मेघों को सूर्य के समान विघ्नों और विघ्नकारियों को ( जिघ्नते ) विनाश करता है । अध्यात्म में – आत्मा ही रथीतम है । वह (युजा) सहयोगी, सहकारी प्रभु के कारण सत्-पति, उत्तम स्वामी का सेवक हो विघ्नों का नाश करता है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः – १, ४, ५ गायत्री । २, ३ निचृद्गायत्री । ६ स्वराडुष्णिक् ।।
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