ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रापूषणौ
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्रा॒ नु पू॒षणा॑ व॒यं स॒ख्याय॑ स्व॒स्तये॑। हु॒वेम॒ वाज॑सातये ॥१॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑ । नु । पू॒षणा॑ । व॒यम् । स॒ख्याय॑ । स्व॒स्तये॑ । हु॒वेम॑ । वाज॑ऽसातये ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रा नु पूषणा वयं सख्याय स्वस्तये। हुवेम वाजसातये ॥१॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रा। नु। पूषणा। वयम्। सख्याय। स्वस्तये। हुवेम। वाजऽसातये ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र, कृषक जन पृथिवीपति पूषा ।
भावार्थ -
( इन्द्रा पूषणा नु ) ऐश्वर्ययुक्त और सब निर्बलों के पोषक, दोनों प्रकार के पुरुषों को ( सख्याय ) मित्र भाव के लिये ( स्वस्तये ) सुख प्राप्ति के लिये और ( वाज-सातये ) बलैश्वर्य, अन्नादि प्राप्त करने के लिये ( वयं हुवेम ) हम प्राप्त करें, उनको आदर पूर्वक बुलावें । (इरां दृणाति ‘इन्द्र’) अनोत्पादक कृषक जन ‘इन्द्र’ है और भागधुक्, पृथिवीपति पूषा है । अन्नादि के लिये दोनों आवश्यक हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्र-पूषणौ देवते ॥ छन्दः – १, ६ विराड् गायत्री । २, ३ निचृद्गायत्री । ४, ५ गायत्री ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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