ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 57/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रापूषणौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒जा अ॒न्यस्य॒ वह्न॑यो॒ हरी॑ अ॒न्यस्य॒ संभृ॑ता। ताभ्यां॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नते ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒जाः । अ॒न्यस्य॑ । वह्न॑यः । हरी॒ इति॑ । अ॒न्यस्य॑ । सम्ऽभृ॑ता । ताभ्या॑म् । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अजा अन्यस्य वह्नयो हरी अन्यस्य संभृता। ताभ्यां वृत्राणि जिघ्नते ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअजाः। अन्यस्य। वह्नयः। हरी इति। अन्यस्य। सम्ऽभृता। ताभ्याम्। वृत्राणि। जिघ्नते ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 57; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
विषय - इन्द्र राजवर्ग, प्रजा पूषा ।
भावार्थ -
उन दोनों मे से, ( अन्यस्य ) एक प्रजावर्ग के ( अजाः वह्नयः ) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने में समर्थ, अग्निवत् तेजस्वी, राज्य-भार को धारण करने वाले, (सम्भृता ) वेतनादि द्वारा अच्छी प्रकार पोषित किये जांय । और ( अन्यस्य ) दूसरे, राजपक्ष के, (अजा ) वेगवान् ( हरी ) अश्व वा स्त्री पुरुष ( संभृता ) एकत्र वेतनबद्धवत् खूब हृष्ट पुष्ट होने उचित हैं । ( ताभ्याम् ) उन दोनों से, (वृत्राणि ) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों और राज्य पर आने वाले संकटों को ( जिघ्नते ) नाश करता है । अधिदेव में – इन्द्र सूर्य, पूषा वायु है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्र-पूषणौ देवते ॥ छन्दः – १, ६ विराड् गायत्री । २, ३ निचृद्गायत्री । ४, ५ गायत्री ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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