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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - पूषा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शु॒क्रं ते॑ अ॒न्यद्य॑ज॒तं ते॑ अ॒न्यद्विषु॑रूपे॒ अह॑नी॒ द्यौरि॑वासि। विश्वा॒ हि मा॒या अव॑सि स्वधावो भ॒द्रा ते॑ पूषन्नि॒ह रा॒तिर॑स्तु ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒क्रम् । ते॒ । अ॒न्यत् । य॒ज॒तम् । ते॒ । अ॒न्यत् । विषु॑रूपे॒ इति॒ विषु॑ऽरूपे । अह॑नी॒ इति॑ । द्यौःऽइ॑व । अ॒सि॒ । विश्वाः॑ । हि । मा॒याः । अव॑सि । स्व॒धा॒ऽवः॒ । भ॒द्रा । ते॒ । पू॒ष॒न् । इ॒ह । रा॒तिः । अ॒स्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुक्रं ते अन्यद्यजतं ते अन्यद्विषुरूपे अहनी द्यौरिवासि। विश्वा हि माया अवसि स्वधावो भद्रा ते पूषन्निह रातिरस्तु ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुक्रम्। ते। अन्यत्। यजतम्। ते। अन्यत्। विषुरूपे इति विषुऽरूपे। अहनी इति। द्यौःऽइव। असि। विश्वाः। हि। मायाः। अवसि। स्वधाऽवः। भद्रा। ते। पूषन्। इह। रातिः। अस्तु ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (स्वधावः ) अपने तेज को धारण कराने वाले पुरुष ! हे ( पूषन् ) धारण किये वीर्य को पोषण करने वाली ! भूमिवत् व्यक्ति स्त्रि ! आप दोनों (वि-सु-रूपे ) विशेष सुन्दर रूपवान्, भिन्न २ उत्तम रुचि वाले, (अहनी) दिन रात्रिवत् एक दूसरे को पीड़ा न देने वाले, दीर्घायु होवो । हे (स्वधावः) अपने आत्मांश को धारण करनेवाले पुरुष ! (ते शुक्रं) तेरा विशुद्ध वीर्य, ( अन्यत् ) भिन्न प्रकृति का है और हे ( पूषन् ) गर्भ में वीर्य को पोषण करने हारी भूमिस्वरूप ! (ते ) तेरा वीर्य रजः रूप ( अन्यत्) भिन्न प्रकृति का है। पुरुष तू ( द्यौः इव असि ) सूर्य के समान है और आप दोनों ( यजतम् ) आदर पूर्वक मिलकर रहो । हे स्त्रि ! तू भी ( द्यौः इव असि ) भूमि के समान कामना वाली, वीर्य को सुरक्षित रखने वाली है । हे पुरुष ! हे स्त्रि ! तुम दोनों पृथक् (विश्वाः मायाः ) समस्त निर्माणकारिणी, सृष्टि उत्पादक शक्तियों को ( अवसि ) सुरक्षित रखते हो । ( ते ) तुम्हारी ( रातिं ) दान आदान, ( भद्रा अस्तु ) भद्र, सुखप्रद और कल्याणकारक ( इह ) इस लोक में हो । उसी प्रकार प्रजा राजा आदि भी मिलकर रहें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः-१ त्रिष्टुप् । ३-४ विराट् त्रिष्टुप् । २ विराड् जगती ।। चतुर्ऋचं सूक्तम् ।।

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