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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - पूषा
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - निषादः
अ॒जाश्वः॑ पशु॒पा वाज॑पस्त्यो धियंजि॒न्वो भुव॑ने॒ विश्वे॒ अर्पि॑तः। अष्ट्रां॑ पू॒षा शि॑थि॒रामु॒द्वरी॑वृजत्सं॒चक्षा॑णो॒ भुव॑ना दे॒व ई॑यते ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒जऽअ॑श्वः । प॒शु॒ऽपाः । वाज॑ऽपस्त्यः । धि॒य॒म्ऽजि॒न्वः । भुव॑ने । विश्वे॑ । अर्पि॑तः । अष्ट्रा॑म् । पू॒षा । शि॒थि॒राम् । उ॒त्ऽवरी॑वृजत् । स॒म्ऽचक्षा॑णः । भुव॑ना । दे॒वः । ई॒य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अजाश्वः पशुपा वाजपस्त्यो धियंजिन्वो भुवने विश्वे अर्पितः। अष्ट्रां पूषा शिथिरामुद्वरीवृजत्संचक्षाणो भुवना देव ईयते ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअजऽअश्वः। पशुऽपाः। वाजऽपस्त्यः। धियम्ऽजिन्वः। भुवने। विश्वे। अर्पितः। अष्ट्राम्। पूषा। शिथिराम्। उत्ऽवरीवृजत्। सम्ऽचक्षाणः। भुवना। देवः। ईयते ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 58; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
विषय - गृह-पति पूषा ।
भावार्थ -
( पूषा ) गृहस्थ का पोषण करने वाला पुरुष ( अज-अश्वः ) भेड़ बकरियों और अश्वों का स्वामी ( पशु-पाः ) पशुओं की पालना करने वाला, ( वाज-पस्त्यः ) गृह में अन्न और ऐश्वर्य का सञ्चय करने वाला, ( धियं-जिन्व: ) ज्ञान और उत्तम कर्म द्वारा परमेश्वर और अपने बन्धुजनों को प्रसन्न करने हारा होकर ( विश्वे भुवने ) इस समस्त संसार के बीच ( अर्पितः ) स्थिर होकर रहे । वह ( पूषा ) गृहस्थ का पालक पोषक ( शिथिराम् ) काम करने में शिथिल, अल्पशक्ति वाली, ( अष्ट्राम् ) भोग योग्य स्त्री को ( उद् वरीवृजत् ) उत्तम रीति से प्राप्त करे, उस से उद्वाह करे । वह ( देवः ) सूर्यवत् तेजस्वी होकर ( सं-चक्षाणः ) अच्छी प्रकार देखता, कामना करता हुआ वा उत्तम वचन कहता हुआ ( भुवना ईयते ) समस्त पदार्थों को प्राप्त हो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः-१ त्रिष्टुप् । ३-४ विराट् त्रिष्टुप् । २ विराड् जगती ।। चतुर्ऋचं सूक्तम् ।।
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