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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 59/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    य इ॑न्द्राग्नी सु॒तेषु॑ वां॒ स्तव॒त्तेष्वृ॑तावृधा। जो॒ष॒वा॒कं वद॑तः पज्रहोषिणा॒ न दे॑वा भ॒सथ॑श्च॒न ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । सु॒तेषु॑ । वा॒म् । स्तव॑त् । तेषु॑ । ऋ॒त॒ऽवृ॒धा॒ । जो॒ष॒ऽवा॒कम् । वद॑तः । प॒ज्र॒ऽहो॒षि॒णा॒ । न । दे॒वा॒ । भ॒सथः॑ । च॒न ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इन्द्राग्नी सुतेषु वां स्तवत्तेष्वृतावृधा। जोषवाकं वदतः पज्रहोषिणा न देवा भसथश्चन ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। इन्द्राग्नी इति। सुतेषु। वाम्। स्तवत्। तेषु। ऋतऽवृधा। जोषऽवाकम्। वदतः। पज्रऽहोषिणा। न। देवा। भसथः। चन ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 59; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे ( इन्द्राग्नी ) ऐश्वर्यवान् और अग्नि के समान तेजस्वी स्त्री पुरुषो ! ( तेषु ) उन उत्पन्न करने योग्य पुत्रों के निमित्त (ऋत-वृधा वां ) धन, वीर्य, ज्ञान की वृद्धि करने वाले आप दोनों को ( यः ) जो विद्वान् पुरुष ( स्तवत् ) उपदेश करे, आप दोनों (जोषवाकं वदतः ) परस्पर प्रीतियुक्त वचन बोलने वाले उसके प्रति ( पज्रहोषिणा ) उत्तम कमाये धन के देने और उत्तम वचन कहने वाले होओ। आप दोनों ( देवा ) परस्पर प्रीतियुक्त, दानशील होकर उसके प्रति ( नभसथ: चन) कभी व्यर्थवाद वा उपहास आदि न किया करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः – १, ३, ४, ५ निचृद् बृहती । २ विराड्बृहती । ६, ७, ९ भुरिगनुष्टुप् । १० अनुष्टुप् । ८ उष्णिक् ।। दशर्चं सूक्तम् ॥

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