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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - सरस्वती छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    इ॒यम॑ददाद्रभ॒समृ॑ण॒च्युतं॒ दिवो॑दासं वध्र्य॒श्वाय॑ दा॒शुषे॑। या शश्व॑न्तमाच॒खादा॑व॒सं प॒णिं ता ते॑ दा॒त्राणि॑ तवि॒षा स॑रस्वति ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । अ॒द॒दा॒त् । र॒भ॒सम् । ऋ॒ण॒ऽच्युत॑म् । दिवः॑ऽदासम् । व॒ध्रि॒ऽअ॒श्वाय॑ । दा॒शुषे॑ । या । शश्व॑न्तम् । आ॒ऽच॒खाद॑ । अ॒व॒सम् । प॒णिम् । ता । ते॒ । दा॒त्राणि॑ । त॒वि॒षा । स॒र॒स्व॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयमददाद्रभसमृणच्युतं दिवोदासं वध्र्यश्वाय दाशुषे। या शश्वन्तमाचखादावसं पणिं ता ते दात्राणि तविषा सरस्वति ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम्। अददात्। रभसम्। ऋणऽच्युतम्। दिवःऽदासम्। वध्रिऽअश्वाय। दाशुषे। या। शश्वन्तम्। आऽचखाद। अवसम्। पणिम्। ता। ते। दात्राणि। तविषा। सरस्वति ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे ( इयम् ) यह सरस्वती, वेगयुक्त जल, वाणी, नदी जिस प्रकार ( वध्र्यश्वाय ) अश्व अर्थात् वेग से जाने वाले प्रवाह को रोकने या उसको और अधिक बढ़ाने वाले पुरुष को ( ऋण-च्युतं ) जल से प्राप्त होने वाला, ( दिवः दासम्) तेज या विद्युत् का देने वाला ( रभसम् ) वेग ( अददात् ) प्रदान करता है । और ( यः ) जो नदी ( शश्वन्तम् ) निरन्तर चलने वाली और ( पणिं ) व्यवहार योग्य, उत्तम ( अवसं ) गति को (आचखाद ) स्थिर रखती है और उसके ( ता तविषा दात्राणि ) वे २ नाना प्रकार के बलयुक्त दान हैं उसी प्रकार यह सरस्वती, वाणी वा ज्ञानमय प्रभु ! ( वध्र्यश्वाय ) अपने इन्द्रिय रूप अश्वों को बांधकर संयम से रहने वाले और ( दाशुषे ) अपने आपको उसके अर्पण करने वाले भक्त को वा ज्ञानदाता विद्वान् को, ( ऋण-च्युतं ) ऋण से मुक्त करने और ( दिवोदासं ) ज्ञान प्रकाश देने वाले ( रभसं ) कार्य साधक बल और ज्ञान ( अददात् ) प्रदान करती है और ( या ) जो ( शश्वन्तम् ) अनादि काल से विद्यमान, नित्य, ( अवसम् ) ज्ञान, रक्षा बल, और (पणिम् ) व्यवहार साधक, वा स्तुत्य ज्ञान वा ज्ञानवान् पुरुष को (आचखाद ) स्थिर कर देती है । हे ( सरस्वति ) उत्तम ज्ञान वाली वाणि ! ( ते ) तेरे ( तविषा ) बड़े ( ता दात्राणि ) वे, वे, अनेक दान हैं । स्त्रीपक्ष में – योषा वै सरस्वती वृषा पूषा ॥ शत० २ ॥ ५॥१॥ ११ ॥ ( इयम् ) यह स्त्री ( दाशुषे ) अन्न, वस्त्र वीर्य सर्वस्त्र देने वाले ( वध्र्यश्वाय ) इन्द्रिय बल को बढ़ाने वाले, वीर्यवान् पुरुष के लिये ( रभसम् ) दृढ़ ( ऋण-च्युतम् ) पितृऋण से मुक्त कर देने वाले ( दिवः-दासं ) प्रसन्नतादायक पुत्र प्रदान करती है । ( अवसं ) रक्षक (पणिं ) स्तुत्य पति को ( शवन्तम् ) पुत्रादि द्वारा सदा के लिये ( आचखाद ) स्थिर कर देती है, स्त्री के वे नाना बड़े महत्वयुक्त ( दात्रा ) सुखमय प्रदान है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सरस्वती देवता ॥ छन्दः – १, १३ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती । ४, ६, ११, १२ निचृद्गायत्री । ५, विराड् गायत्री । ७, ८ गायत्री । १४ पंक्ति: ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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