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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - सरस्वती छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    इ॒यं शुष्मे॑भिर्बिस॒खाइ॑वारुज॒त्सानु॑ गिरी॒णां त॑वि॒षेभि॑रू॒र्मिभिः॑। पा॒रा॒व॒त॒घ्नीमव॑से सुवृ॒क्तिभिः॒ सर॑स्वती॒मा वि॑वासेम धी॒तिभिः॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । शुष्मे॑भिः । बि॒स॒खाःऽइ॑व । अ॒रु॒ज॒त् । सानु॑ । गि॒री॒णाम् । त॒वि॒षेभिः॑ । ऊ॒र्मिऽभिः॑ । पा॒रा॒व॒त॒ऽघ्नीम् । अव॑से । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । सर॑स्वतीम् । आ । वि॒वा॒से॒म॒ । धी॒तिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं शुष्मेभिर्बिसखाइवारुजत्सानु गिरीणां तविषेभिरूर्मिभिः। पारावतघ्नीमवसे सुवृक्तिभिः सरस्वतीमा विवासेम धीतिभिः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम्। शुष्मेभिः। बिसखाःऽइव। अरुजत्। सानु। गिरीणाम्। तविषेभिः। ऊर्मिऽभिः। पारावतऽघ्नीम्। अवसे। सुवृक्तिऽभिः। सरस्वतीम्। आ। विवासेम। धीतिऽभिः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    जैसे नदी ( बिसखा:-इव ) कमल के मूल उखाड़ने वाले के समान ( उर्मिभिः तविषेभिः ) बलवान् तरंगों से ( गिरीणां सानु अरुजत् ) पर्वतों वाले चट्टानों को तोड़ डालती है और जिस प्रकार विद्युत् ( शुष्मेभिः ) बलयुक्त प्रहारों से ( गिरीणां सानु ) मेघों या पर्वतों के शिखरों को अनायास तोड़ फोड़ डालती है, उसी प्रकार ( इयं ) यह वाणी (शुष्मेभिः) बलयुक्त (तविषेभिः) बड़े २ ( ऊर्मिभिः ) तरंगों से युक्त उल्लासों से ( गिरीणां ) स्तुति वा वाणियों के प्रयोक्ता विद्वान् पुरुषों के ( सानु ) प्राप्तव्य ज्ञान को (अरुजत् ) तोड़ देती है । उसे (पारावतघ्नी) परब्रह्मस्वरूप ‘अवत’ अर्थात् प्राप्तव्य पद तक पहुंचने वाली, वहां तक का ज्ञान देने वाली (सरस्वतीम् ) प्रशस्त ज्ञानयुक्त वेद वाणी को ( सु-वृत्तिभिः ) उत्तम मलनाशक, पापशोधक ( धीतिभिः ) अध्ययनादि-कर्मों से ( आ विवासेम) अच्छी प्रकार सेवन करें, उसका निरन्तर अभ्यास करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सरस्वती देवता ॥ छन्दः – १, १३ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती । ४, ६, ११, १२ निचृद्गायत्री । ५, विराड् गायत्री । ७, ८ गायत्री । १४ पंक्ति: ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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