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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 14
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - सरस्वती छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    सर॑स्वत्य॒भि नो॑ नेषि॒ वस्यो॒ माप॑ स्फरीः॒ पय॑सा॒ मा न॒ आ ध॑क्। जु॒षस्व॑ नः स॒ख्या वे॒श्या॑ च॒ मा त्वत्क्षेत्रा॒ण्यर॑णानि गन्म ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वति । अ॒भि । नः॒ । ने॒षि॒ । वस्यः॑ । मा । अप॑ । स्फ॒रीः॒ । पय॑सा । मा । नः॒ । आ । ध॒क् । जु॒षस्व॑ । नः॒ । स॒ख्या । वे॒श्या॑ । च॒ । मा । त्वत् । क्षेत्रा॑णि । अर॑णानि । ग॒न्म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वत्यभि नो नेषि वस्यो माप स्फरीः पयसा मा न आ धक्। जुषस्व नः सख्या वेश्या च मा त्वत्क्षेत्राण्यरणानि गन्म ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वति। अभि। नः। नेषि। वस्यः। मा। अप। स्फरीः। पयसा। मा। नः। आ। धक्। जुषस्व। नः। सख्या। वेश्या। च। मा। त्वत्। क्षेत्राणि। अरणानि। गन्म ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 14
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे ( सरस्वति ) उत्तम ज्ञान से सम्पन्न वेदवाणि ! हे प्रभो ! तु ( नः ) हमें ( वस्यः ) अति समृद्ध ऐश्वर्य को ( अभिनेषि ) प्राप्त करा । ( मा अप स्फरी: ) हमें विनाश मत कर । ( पयसा ) पुष्टिकारक ज्ञान से ( नः ) हमें ( मा आधक् ) थोड़ा भी दग्ध, संतप्त न होने दे । ( वेश्या ) प्रवेश होने योग्य ( सख्या ) मित्रभाव से ( नः जुषस्व ) हमें प्रेम पूर्वक स्वीकार कर । ( त्वत् ) तुझ से रहित होकर हम (अरणानि ) अरमणीय, दुःखदायी ( क्षेत्राणि ) क्षेत्र या देहों में ( मा गन्म ) न जावें, तिर्यग् देहों में न भटकें । इसी प्रकार सरस्वती स्त्री हमें उत्तम धन प्राप्त करावे, हमें नष्ट न करे, न उजाड़े । जल अन्नादि के कारण हमें न सतावे । अपने हृदय में प्रवेश होने योग्य मित्र भाव से हमें प्रेम से अपनावे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सरस्वती देवता ॥ छन्दः – १, १३ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती । ४, ६, ११, १२ निचृद्गायत्री । ५, विराड् गायत्री । ७, ८ गायत्री । १४ पंक्ति: ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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