ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स्तु॒षे नरा॑ दि॒वो अ॒स्य प्र॒सन्ता॒ऽश्विना॑ हुवे॒ जर॑माणो अ॒र्कैः। या स॒द्य उ॒स्रा व्युषि॒ ज्मो अन्ता॒न्युयू॑षतः॒ पर्यु॒रू वरां॑सि ॥१॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒षे । नरा॑ । दि॒वः । अ॒स्य । प्र॒ऽसन्ता॑ । अ॒श्विना॑ । हु॒वे॒ । जर॑माणः । अ॒र्कैः । या । स॒द्यः । उ॒स्रा । वि॒ऽउषि॑ । ज्मः । अन्ता॑न् । युयू॑षतः । परि॑ । उ॒रु । वरां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुषे नरा दिवो अस्य प्रसन्ताऽश्विना हुवे जरमाणो अर्कैः। या सद्य उस्रा व्युषि ज्मो अन्तान्युयूषतः पर्युरू वरांसि ॥१॥
स्वर रहित पद पाठस्तुषे। नरा। दिवः। अस्य। प्रऽसन्ता। अश्विना। हुवे। जरमाणः। अर्कैः। या। सद्यः। उस्रा। विऽउषि। ज्मः। अन्तान्। युयूषतः। परि। उरु। वरांसि ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - सूर्य उषावत् विवेचक स्त्री पुरुषों का वर्णन।
भावार्थ -
जिस प्रकार ( उस्रा ) किरणों और वायुओं से युक्त, ( अश्विना ) वेगवान् किरणादि से युक्त सूर्य और उषा ( ज्मः अन्तान् उरू वरांसि) पृथिवी के समीप के नाना पदार्थों को (परि युयूषतः) पृथक् २ दर्शाते हैं उसी प्रकार (अश्विना ) अश्व आदि वेगवान् साधनों से सम्पन्न ( दिवः नरा ) ज्ञानप्रकाश वा उत्तम कामना और व्यवहार के प्रवर्त्तक, ( अस्य ) इस जगत् के बीच ( प्र-सन्ता) उत्तम सामर्थ्यवान्, मानयुक्त होकर रहें । ( या ) जो (सद्यः ) शीघ्र ही ( उस्रा ) तेजस्वी होकर (व्युषि ) विशेष कामना या इच्छा होने पर ( अन्तान् ) समीपस्थ सत्य पदार्थों को और ( उरू वरांसि ) बहुत से दुःखवारक, श्रेष्ठ पदार्थों को ( ज्मः परि युयूषतः ) पृथिवी से पृथक् कर लेते, प्राप्त करते और उनका विवेक करते हैं। ऐसे विवेचक, स्त्री पुरुषों को (अर्कै: जरमाणः ) उत्तम अर्चना अर्थात् सत्कारोचित साधनों से ( हुवे ) आदरपूर्वक बुलाता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २ भुरिक पंक्ति: । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
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