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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 62/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ता य॒ज्ञमा शुचि॑भिश्चक्रमा॒णा रथ॑स्य भा॒नुं रु॑रुचू॒ रजो॑भिः। पु॒रू वरां॒स्यमि॑ता॒ मिमा॑ना॒ऽपो धन्वा॒न्यति॑ याथो॒ अज्रा॑न् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । य॒ज्ञम् । आ । शुचि॑ऽभिः । च॒क्र॒मा॒णा । रथ॑स्य । भा॒नुम् । रु॒रु॒चुः॒ । रजः॑ऽभिः । पु॒रु । वरां॒सि । अमि॑ता । मिमा॑ना । अ॒पः । धन्वा॑नि । अति॑ । या॒थः॒ । अज्रा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता यज्ञमा शुचिभिश्चक्रमाणा रथस्य भानुं रुरुचू रजोभिः। पुरू वरांस्यमिता मिमानाऽपो धन्वान्यति याथो अज्रान् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। यज्ञम्। आ। शुचिऽभिः। चक्रमाणा। रथस्य। भानुम्। रुरुचुः। रजःऽभिः। पुरु। वरांसि। अमिता। मिमाना। अपः। धन्वानि। अति। याथः। अज्रान् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    ( रथस्य रजोभिः भानुम् ) रथ के धूलिकणों से सूर्य को सुशोभित करते हुए, रथ से जाते हुए जिनको लोग सूर्य उषा के समान जानते हैं (ता) वे आप दोनों (शुचिभिः) शुद्ध पवित्र आचरणों से, (यज्ञम् आ चक्रमाणा ) परस्पर सत्संग, दान, मान, सत्कार आदि व्यवहार करते हुए ( रथस्य ) अपने रमणीय व्यवहार के ( रजोभिः ) तेजों से (भानुम् ) अपने तेज को ( रुरुचुः ) अति रुचिकारक बनाओ और आप दोनों इस जगत् में ( अमिता ) अनेक ( पुरू ) बहुविध (वरांसि ) श्रेष्ठ रथादि पदार्थों का (मिमाना ) निर्माण करते हुए ( अज्रान्) अपने वेग से जाने वाले अश्व, यानादि की ( अपः धन्व अतियाथः ) समुद्रों और मैदानों के पार पहुंचाने में समर्थ होवो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २ भुरिक पंक्ति: । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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