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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 102/ मन्त्र 3
ऋषिः - वसिष्ठः कुमारो वाग्नेयः
देवता - पर्जन्यः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तस्मा॒ इदा॒स्ये॑ ह॒विर्जु॒होता॒ मधु॑मत्तमम् । इळां॑ नः सं॒यतं॑ करत् ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । इत् । आ॒स्ये॑ । ह॒विः । जु॒होत॑ । मधु॑मत्ऽतमम् । इळा॑म् । नः॒ । स॒म्ऽयत॑म् । क॒र॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मा इदास्ये हविर्जुहोता मधुमत्तमम् । इळां नः संयतं करत् ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । इत् । आस्ये । हविः । जुहोत । मधुमत्ऽतमम् । इळाम् । नः । सम्ऽयतम् । करत् ॥ ७.१०२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 102; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
विषय - अग्निहोत्र यज्ञ से प्रभु की प्रार्थना और मेघोत्पत्ति।
भावार्थ -
जो परमेश्वर ( नः ) हमारे ( आस्ये ) मुख में ( इडा ) वाणी को ( संयतं ) अच्छी प्रकार सुनियन्त्रित ( करत् ) करता है ( तस्मै इत् ) उसी प्रभु परमेश्वर के गुणगान करने के लिये ( आस्ये ) अपने मुख में ( मधुमत्-तमम् ) अत्यन्त मधुर गुण से युक्त ( हविः ) वचन का ( जुहोत ) धारण करो और अन्यों को प्रदान करो। इसी प्रकार जो प्रभु मेघ के समान ( नः इडां संयतं करत् ) हमें नियम से अन्न देता है उसी के लिये मधुर अन्नादि की (आस्ये) छिन्न भिन्न करके दूर २ तक फैला देने वाले अग्नि में ( हविः) मधुर अन्नादि चरु प्रदान करो। उसी प्रभु के लिये अपने मुख में भी मधुर अन्न का ही ग्रहण करो। मलिन पदार्थ मांसादि का नहीं । इति द्वितीयो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठः कुमारो वाग्नेय ऋषिः॥ पर्जन्यो देवता॥ छन्दः—१ याजुषी विराट् त्रिष्टुप्। २, ३ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वयृचं सूक्तम्॥
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