ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
उ॒त द्वार॑ उश॒तीर्वि श्र॑यन्तामु॒त दे॒वाँ उ॑श॒त आ व॑हे॒ह ॥२॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । द्वारः॑ । उ॒श॒तीः । वि । श्र॒य॒न्ता॒म् । उ॒त । दे॒वान् । उ॒श॒तः । आ । व॒ह॒ । इ॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत द्वार उशतीर्वि श्रयन्तामुत देवाँ उशत आ वहेह ॥२॥
स्वर रहित पद पाठउत। द्वारः। उशतीः। वि। श्रयन्ताम्। उत। देवान्। उशतः। आ। वह। इह ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञाग्निवत् विद्वान् शासक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे विद्वन् ! तेजस्विन् ! राजन् ! (उत ) और ( द्वारः ) वेग से जाने वाली, शत्रु का वारण करने वाली सेनाएं ( उशती: ) तुझे निरन्तर चाहती हुईं देवियों के समान ( वि श्रयन्ताम् ) विशेष रूप से अपने स्वामी का आश्रय लें। ( उत ) और ( उशतः देवान् ) तुझे चाहते विद्वान् पुरुषों को भी तू ( इह ) इस स्थान में ( आ वह ) प्राप्त करा आदर पूर्वक बुला।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ७ आर्च्युष्णिक् । २ साम्नी त्रिष्टुप् । ५ साम्नी पंक्तिः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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