ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
अग्ने॑ वी॒हि ह॒विषा॒ यक्षि॑ दे॒वान्त्स्व॑ध्व॒रा कृ॑णुहि जातवेदः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । वी॒हि । ह॒विषा॑ । यक्षि॑ । दे॒वान् । सु॒ऽअ॒ध्व॒रा । कृ॒णु॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने वीहि हविषा यक्षि देवान्त्स्वध्वरा कृणुहि जातवेदः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। वीहि। हविषा। यक्षि। देवान्। सुऽअध्वरा। कृणुहि। जातऽवेदः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
विषय - यज्ञाग्निवत् विद्वान् शासक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ! तू ( हविषा ) उत्तम अन्न आदि पदार्थ से ( वीहि ) विद्वानों की रक्षा कर और ( देवान् यक्षि ) विद्वानों का आदर सत्कार कर। हे ( जातवेदः ) उत्तम ज्ञान वाले ! तू ( सु-अध्वरा कृणुहि ) उत्तम हिंसारहित, एवं नष्ट न होने वाले श्रेष्ठ कर्म कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ७ आर्च्युष्णिक् । २ साम्नी त्रिष्टुप् । ५ साम्नी पंक्तिः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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