ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
न सोम॒ इन्द्र॒मसु॑तो ममाद॒ नाब्र॑ह्माणो म॒घवा॑नं सु॒तासः॑। तस्मा॑ उ॒क्थं ज॑नये॒ यज्जुजो॑षन्नृ॒वन्नवी॑यः शृ॒णव॒द्यथा॑ नः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठन । सोमः॑ । इन्द्र॑म् । असु॑तः । म॒मा॒द॒ । न । अब्र॑ह्माणः । म॒घऽवा॑नम् । सु॒तासः॑ । तस्मै॑ । उ॒क्थम् । ज॒न॒ये॒ । यत् । जुजो॑षत् । नृ॒ऽवत् । नवी॑यः । शृ॒णव॑त् । यथा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न सोम इन्द्रमसुतो ममाद नाब्रह्माणो मघवानं सुतासः। तस्मा उक्थं जनये यज्जुजोषन्नृवन्नवीयः शृणवद्यथा नः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठन। सोमः। इन्द्रम्। असुतः। ममाद। न। अब्रह्माणः। मघऽवानम्। सुतासः। तस्मै। उक्थम्। जनये। यत्। जुजोषत्। नृऽवत्। नवीयः। शृणवत्। यथा। नः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - ‘असुत सोम इन्द्र को हर्ष नहीं देता’, उसकी व्याख्या सोम और इन्द्र के परस्पर सम्बन्धों का रहस्य स्पष्टीकरण ।
भावार्थ -
( असुतः सोमः ) जिस प्रकार विना तैयार किया हुआ ओषधि रस ( इन्द्रम् ) इन्द्रिय युक्त जीव को (न ममाद ) हर्ष या सुख नहीं देता और (असुतः सोमः ) न उत्पन्न हुआ पुत्र वा अस्नातक शिष्य ( इन्द्रं न ममाद ) गृह स्वामी, सम्पन्न पुरुष वा आचार्य को भी हर्षित नहीं करता, उसी प्रकार ( असुतः ) ऐश्वर्यरहित ( सोमः ) राष्ट्र (इन्द्रम् न ममाद ) राजा को सुखी नहीं कर सकता । (अब्रह्माणः सुतासः ) वेदज्ञान से रहित शिष्य वा पुत्र ( मघवानम् ) पूज्य धन वा ज्ञान के स्वामी पिता को भी हर्ष नहीं देते, उसी प्रकार ( अब्रह्माणः ) निर्धन, धनसम्पदा न देने वाले उत्पन्न जन वा पदार्थ भी (मघवानं न ममदुः ) धनाढ्य पुरुष को प्रसन्न नहीं करते । ( यत् जुजोषत् ) जो प्रेम से सेवन करे मैं ( तस्मै ) उसी के लिये ( उक्थं जनये ) उत्तम वचन प्रकट करूं ( यथा ) जिससे वह ( नः नवीयः ) हमारा उत्तम वचन ( नृवत् ) उत्तम पुरुष के समान ( शृणवत् ) श्रवण करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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