ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
उ॒क्थउ॑क्थे॒ सोम॒ इन्द्रं॑ ममाद नी॒थेनी॑थे म॒घवा॑नं सु॒तासः॑। यदीं॑ स॒बाधः॑ पि॒तरं॒ न पु॒त्राः स॑मा॒नद॑क्षा॒ अव॑से॒ हव॑न्ते ॥२॥
स्वर सहित पद पाठउक्थेऽउ॑क्थे । सोमः॑ । इन्द्र॑म् । म॒मा॒द॒ । नी॒थेऽनी॑थे । म॒घऽवा॑नम् । सु॒तासः॑ । यत् । ई॒म् । स॒ऽबाधः॑ । पि॒तर॑म् । न । पु॒त्राः । स॒मा॒नऽद॑क्षाः । अव॑से । हव॑न्ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्थउक्थे सोम इन्द्रं ममाद नीथेनीथे मघवानं सुतासः। यदीं सबाधः पितरं न पुत्राः समानदक्षा अवसे हवन्ते ॥२॥
स्वर रहित पद पाठउक्थेऽउक्थे। सोमः। इन्द्रम्। ममाद। नीथेऽनीथे। मघऽवानम्। सुतासः। यत्। ईम्। सऽबाधः। पितरम्। न। पुत्राः। समानऽदक्षाः। अवसे। हवन्ते ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
विषय - सोम, प्रजाजन, ऐश्वर्य, ओषधि रस आदि, इन्द्र राजा, आत्मा, गुरु आदि ।
भावार्थ -
(उक्थे-उक्थे) प्रत्येक उत्तम, उपदेश करने योग्य व्यवहार ज्ञान में ( सोमः ) शिष्य ( इन्द्रं ममाद ) उत्तम आचार्य को हर्ष देने वाला हो, प्रत्येक उत्तम ज्ञान के लिये शिष्य गुरु को प्रसन्न करे । ( नीथे-नीथे ) उत्तम उद्देश्य की ओर जाने वाले प्रत्येक मार्ग वा सत्य व्यवहार, उत्तम २ वचन में ( सुतासः ) उत्पन्न शिष्य वा पुत्रजन भी ( मघवानं ) दान योग्य ज्ञान और धन के स्वामी गुरु वा पिता को प्रसन्न करें । इसी प्रकार ( सोमः ) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र पुत्रवत् राजा को प्रसन्न करे । प्रत्येक न्याययुक्त व्यवहारों में वे प्रजाजन ऐश्वर्यवान् राजा को हृष्ट, संतुष्ट रक्खें । ( समानदक्षाः पुत्राः सबाधः पितरं न ) समान बल से युक्त पुत्र जिस प्रकार पीड़ा युक्त पिता को ( अवसे हवन्ते ) उसकी रक्षा के लिये प्राप्त होते हैं वा ( सबाधः पुत्राः पितरं अवसे हवन्ते ) पीड़ायुक्त पुत्र अपनी रक्षा के लिये पिता को पुकारते हैं उसी प्रकार ( यत् ईम् ) जब भी प्रजाजन (सबाधः) पीड़ा से पीड़ित हों तब वे भी पुत्रवत् ही ( पितरं ) अपने पालक राजा को ( समान-दक्षाः ) समान बलशाली होकर ( अवसे हवन्ते ) अपनी रक्षा के लिये पुकारें । इसी प्रकार जब राजा (सबाधः) पीड़ा युक्त, संकट में हो तो वे ( अवसे ) उसकी रक्षा करने के लिये उसे ( हवन्त ) अपनावें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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