ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
ए॒वा वसि॑ष्ठ॒ इन्द्र॑मू॒तये॒ नॄन्कृ॑ष्टी॒नां वृ॑ष॒भं सु॒ते गृ॑णाति। स॒ह॒स्रिण॒ उप॑ नो माहि॒ वाजा॑न्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । वसि॑ष्ठः । इन्द्र॑म् । ऊ॒तये॑ । नॄन् । कृ॒ष्टी॒नाम् । वृ॒ष॒भम् । सु॒ते । गृ॒णा॒ति॒ । स॒ह॒स्रिणः॑ । उप॑ । नः॒ । मा॒हि॒ । वाजा॑न् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा वसिष्ठ इन्द्रमूतये नॄन्कृष्टीनां वृषभं सुते गृणाति। सहस्रिण उप नो माहि वाजान्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठएव। वसिष्ठः। इन्द्रम्। ऊतये। नॄन्। कृष्टीनाम्। वृषभम्। सुते। गृणाति। सहस्रिणः। उप। नः। माहि। वाजान्। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
विषय - कृषिवृद्ध्यर्थं मेघवत् प्रजावृद्धयर्थं राजा की स्तुति ।
भावार्थ -
(सुते) अन्न को उत्पन्न करने के लिये जिस प्रकार (कृष्टीनां ) खेतियों के वृद्धयर्थ ( वृषभं ) वर्षण करने वाले मेघ की विद्वान् जनस्तुति करते हैं और अन्न के उत्पन्न करने के लिये जिस प्रकार ( कृष्टीनां ) खेती करने हारों के बीच ( वृषभं ) बलवान् बैल की स्तुति की जाती है उसी प्रकार ( वसिष्ठः ) देश में वसने वाले उत्तम जन ( सुते ) ऐश्वर्य को प्राप्त करने के निमित्त, और ( ऊतये ) रक्षा के लिये भी ( कृष्टीनां ) मनुष्यों के बीच ( वृषभं ) सर्वश्रेष्ठ (इन्द्रं) शत्रुता और ऐश्वर्य युक्त पुरुष की ( गृणाति ) स्तुति करता है । इसी प्रकार ( वसिष्ठः ) उत्तम विद्वान् ऐश्वर्य प्राप्ति और रक्षार्थ उस राजा को उपदेश भी करे । हे विद्वन् ! हे राजन् ! तू ( नः ) हमें ( सहस्रिणः वाजान्) सहस्रों सुखों से युक्त ऐश्वर्य ( उप माहि ) प्रदान कर । हे विद्वान् पुरुषो ! ( यूयं ) आप लोग ( नः सदा स्वस्तिभिः पात ) हमारी सदा उत्तम २ उपायों से रक्षा करें। इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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