ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
नू चि॑न्न॒ इन्द्रो॑ म॒घवा॒ सहू॑ती दा॒नो वाजं॒ नि य॑मते न ऊ॒ती। अनू॑ना॒ यस्य॒ दक्षि॑णा पी॒पाय॑ वा॒मं नृभ्यो॑ अ॒भिवी॑ता॒ सखि॑भ्यः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठनु । चि॒त् । नः॒ । इन्द्रः॑ । म॒घऽवा॑ । सऽहू॑ती । दा॒नः । वाज॑म् । नि । य॒म॒ते॒ । नः॒ । ऊ॒ती । अनू॑ना । यस्य॑ । दक्षि॑णा । पी॒पाय॑ । वा॒मम् । नृऽभ्यः॑ । अ॒भिऽवी॑ता । सखि॑ऽभ्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू चिन्न इन्द्रो मघवा सहूती दानो वाजं नि यमते न ऊती। अनूना यस्य दक्षिणा पीपाय वामं नृभ्यो अभिवीता सखिभ्यः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठनु। चित्। नः। इन्द्रः। मघऽवा। सऽहूती। दानः। वाजम्। नि। यमते। नः। ऊती। अनूना। यस्य। दक्षिणा। पीपाय। वामम्। नृऽभ्यः। अभिऽवीता। सखिऽभ्यः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 27; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
विषय - राजा का धन, बल दोनों पर नियन्त्रण ही प्रजा को सुख दे सकता है ।
भावार्थ -
( यस्य ) जिसकी ( अभि-वीता ) तेज से युक्त, प्रजा का रक्षण करने वाली, ( दक्षिणा ) दानशीलता और क्रिया सामर्थ्य, ( अनूना ) किसी से भी न्यून नहीं होकर ( सखिभ्यः नृभ्यः ) मित्र जनों के लिये ( वामं ) उत्तम ऐश्वर्य को ( पीपाय ) बढ़ाती है ( नु चित् ) वह पूज्य ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् ( मघवा ) उत्तम धन, ज्ञान का स्वामी ( दानः ) दान करता हुआ ( नः ) हमारी ( ऊती ) रक्षा के लिये और ( स-हूती ) समान रूप से सबको देने की नीति से ( वाजं ) बल और ऐश्वर्यं को ( नि यमते ) नियन्त्रित करता और प्रदान करता है। राजा प्रजा की रक्षा में और समान मूल्य पदार्थों के विनिमय से धन और बल दोनों को नियम में रक्खे । तब उसका अप्रतिम धन, दानशक्ति और क्रिया सामर्थ्य प्रजा को सुख दे सकते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ५ विराट् त्रिष्टुप् । निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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