ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
अहा॒ यदि॑न्द्र सु॒दिना॑ व्यु॒च्छान्दधो॒ यत्के॒तुमु॑प॒मं स॒मत्सु॑। न्य१॒॑ग्निः सी॑द॒दसु॑रो॒ न होता॑ हुवा॒नो अत्र॑ सु॒भगा॑य दे॒वान् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअहा॑ । यत् । इ॒न्द्र॒ । सु॒ऽदिना॑ । वि॒ऽउ॒च्छान् । दधः॑ । यत् । के॒तुम् । उ॒प॒ऽमम् । स॒मत्ऽसु॑ । नि । अ॒ग्निः । सी॒द॒त् । असु॑रः । न । होता॑ । हु॒वा॒नः । अत्र॑ । सु॒ऽभगा॑य । दे॒वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहा यदिन्द्र सुदिना व्युच्छान्दधो यत्केतुमुपमं समत्सु। न्य१ग्निः सीददसुरो न होता हुवानो अत्र सुभगाय देवान् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअहा। यत्। इन्द्र। सुऽदिना। विऽउच्छान्। दधः। यत्। केतुम्। उपऽमम्। समत्ऽसु। नि। अग्निः। सीदत्। असुरः। न। होता। हुवानः। अत्र। सुऽभगाय। देवान् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
विषय - सेनापति होने योग्य पुरुष ।
भावार्थ -
जिस प्रकार सूर्य (सुदिना) शुभ दिनों को (वि उच्छान् ) खूब प्रकाशित कर ( दधे ) धारण करता है ( केतुम् दधे ) ज्ञान प्रकाशक को भी धारण करता है, वह (सुभगाय देवान् हुवानः होता न) सुख, कल्याण के लिये किरणों को देता हुआ यज्ञ में देवताओं को हवि देता या आह्वान करते हुए होता या अग्नि के समान प्रतीत होता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् सेनापते ! तू भी ( सुदिना अहा) शुभ दिनों को प्राप्त कर (व्युच्छान् देवान् दधः ) खूब तेजस्वी उज्ज्वल वीर पुरुषों और शुभ गुणों को धारण कर और ( समत्सु ) संग्राम के अवसरों में ( उपमं) आदर्श रूप ( केतुम् ) ध्वजा वा ज्ञापक चिह्न को ( दधः ) धारण कर । तू ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी, अग्रणी और ( असुरः न ) प्राणवत् सर्वत्र सबको जीवन देने वाला वा वायुवत् शत्रुओं को उखाड़ने में समर्थ होकर ( होता ) सबको वृत्ति देने वाला होकर ( देवान् ) विजयेच्छुक, चीर पुरुषों को ( सु-भगाय ) उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये ( हुवानः) बुलाता, उनको स्वीकार करता तथा युद्धाग्नि में होता के तुल्य मन्त्रों का उच्चारण करता हुआ (नि सीदत्) विराजे । (२) विद्वान् (उपमं केतुम् दधत् ) सर्वोपमायोग्य ज्ञान धारण करे । ( देवान् हुवानः ) ज्ञानेच्छुकों को ज्ञान प्रदान करता हुआ ( अग्नि: असुरः न निसीदत् ) अग्निवत् सुप्रकाशक और वायुवत् सर्वप्रिय होकर विराजे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ निचृत्पंक्तिः । ४, ५ स्वराट् पंक्तिः ॥
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