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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हव॑न्त उ त्वा॒ हव्यं॒ विवा॑चि त॒नूषु॒ शूराः॒ सूर्य॑स्य सा॒तौ। त्वं विश्वे॑षु॒ सेन्यो॒ जने॑षु॒ त्वं वृ॒त्राणि॑ रन्धया सु॒हन्तु॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हव॑न्ते । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । हव्य॑म् । विऽवा॑चि । त॒नूषु॑ । शूराः॑ । सूर्य॑स्य । सा॒तौ । त्वम् । विश्वे॑षु । सेन्यः॑ । जने॑षु । त्वम् । वृ॒त्राणि॑ । र॒न्ध॒य॒ । सु॒ऽहन्तु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हवन्त उ त्वा हव्यं विवाचि तनूषु शूराः सूर्यस्य सातौ। त्वं विश्वेषु सेन्यो जनेषु त्वं वृत्राणि रन्धया सुहन्तु ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हवन्ते। ऊँ इति। त्वा। हव्यम्। विऽवाचि। तनूषु। शूराः। सूर्यस्य। सातौ। त्वम्। विश्वेषु। सेन्यः। जनेषु। त्वम्। वृत्राणि। रन्धय। सुऽहन्तु ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे राजन् ! ( शुर: ) शूरवीर पुरुष ( वि वाचि ) विविध वाणियों के प्रयोग करने के अवसर अर्थात् संग्राम में और स्तुतिकाल में ( हव्यं ) पुकारने और स्तुति करने योग्य ( त्वा उ ) तुझको ही ( हवन्ते) पुकारते और स्तुति करते हैं । ( तनूषु ) शरीरों में ( सूर्यस्य सातौ ) सूर्य नाम दक्षिण नासागत प्राण के प्राप्त होने पर आवेश में अथवा (तनूषु ) अंगों में सूर्य के समान तेज के प्राप्त करने के निमित्त भी ( त्वा उ हवन्ते) तेरी ही स्तुति करते हैं । ( त्वं विश्वेषु जनेषु ) तू सब मनुष्यों में ( सेन्यः ) सेना नायक होने योग्य है । और ( त्वं ) तू ( वृत्राणि ) बढ़ते शत्रुसैन्यों को ( सु हन्तु ) अच्छी प्रकार दण्डित कर और ( रन्धय ) वश कर अथवा ( सुहन्तु रन्धय ) उत्तम हनन साधनों से शत्रुओं का नाश कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ निचृत्पंक्तिः । ४, ५ स्वराट् पंक्तिः ॥

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