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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र शु॒क्रैतु॑ दे॒वी म॑नी॒षा अ॒स्मत्सुत॑ष्टो॒ रथो॒ न वा॒जी ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । शु॒क्रा । ए॒तु॒ । दे॒वी । म॒नी॒षा । अ॒स्मत् । सुऽत॑ष्टः । रथः॑ । न । वा॒जी ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र शुक्रैतु देवी मनीषा अस्मत्सुतष्टो रथो न वाजी ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। शुक्रा। एतु। देवी। मनीषा। अस्मत्। सुऽतष्टः। रथः। न। वाजी ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (वाजी ) वेगवान् ( रथः ) रथ ( सु-तष्टः ) उत्तम रीति से शिल्पी द्वारा निर्मित होकर जिस प्रकार ( मनीषाः एति ) मनोऽनुकूल गतियें करता है उसी प्रकार ( सु-तष्टः ) उत्तम रीति से अध्यापित, ( वाजी ) ज्ञानी पुरुष और ( शुक्रा ) शुद्ध अन्तःकरणवाली, शुद्धाचार युक्त (देवी) उत्तम विदुषी स्त्री भी ( अस्मत् ) हमसे ( मनीषा: ) उत्तम उत्तम बुद्धियों को ( एतु ) प्राप्त करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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