ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 14
उ॒क्थ॒भृतं॑ साम॒भृतं॑ बिभर्ति॒ ग्रावा॑णं॒ बिभ्र॒त्प्र व॑दा॒त्यग्रे॑। उपै॑नमाध्वं सुमन॒स्यमा॑ना॒ आ वो॑ गच्छाति प्रतृदो॒ वसि॑ष्ठः ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठउ॒क्थ॒ऽभृत॑म् । सा॒म॒ऽभृत॑म् । बि॒भ॒र्ति॒ । ग्रावा॑णम् । बिभ्र॑त् । प्र । व॒दा॒ति॒ । अग्रे॑ । उप॑ । ए॒न॒म् । आ॒ध्व॒म् । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑नाः । आ । वः॒ । ग॒च्छा॒ति॒ । प्र॒ऽतृ॒दः॒ । वसि॑ष्ठः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्थभृतं सामभृतं बिभर्ति ग्रावाणं बिभ्रत्प्र वदात्यग्रे। उपैनमाध्वं सुमनस्यमाना आ वो गच्छाति प्रतृदो वसिष्ठः ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठउक्थऽभृतम्। सामऽभृतम्। बिभर्ति। ग्रावाणम्। बिभ्रत्। प्र। वदाति। अग्रे। उप। एनम्। आध्वम्। सुऽमनस्यमानाः। आ। वः। गच्छाति। प्रऽतृदः। वसिष्ठः ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 14
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
विषय - उत्तम आचार्य वसिष्ठ । उसका शिक्षण ।
भावार्थ -
जो विद्वान् ( अग्रे ) सबसे पूर्व, ( बिभ्रत्) स्वयं ज्ञान को धारण करता हुआ ( प्र वदाति) उत्तम प्रवचन करता है वह (ग्रावाणं ) मेघ के समान ज्ञान-जल को धारण करने वाले ( उक्थ-भृतं ) ऋग्वेद के धारण करने और ( साम-भृतं ) सामवेद के धारण करने वाले विद्वान् शिष्य को भी ( बिभर्ति ) धारण करता है। वही ( वसिष्ठः ) वसु, ब्रह्मचारियों में सर्वश्रेष्ठ विद्वान् है । हे (प्र-तृदः) तीनों आश्रमों को अन्नादि देने वाले गृहस्थो ! वा हे ( प्रतृदः ) खण्ड २ कर वेद का अध्ययन करने वाले ब्रह्मचारियो ! जब वह (वः आगच्छति) तुम्हें प्राप्त हो तब आप लोग ( एवं ) उसकी ( सुमनस्यमानाः ) शुभ संकल्पयुक्त होकर ( उप आध्वम् ) उपासना कर, उसके समीप बैठकर ज्ञान ग्रहण करो । अथवा—वह वसिष्ठ ही अध्याय, वा पद, प्रकृति प्रत्ययादि विच्छिन्न २ कर पढ़ाने हारा, वा संशयों का छेत्ता ज्ञानी पुरुष 'प्रतृद' है वह जब आवे तब सब उसकी उपासना कर ज्ञान-लाभ करें। इसी प्रकार सबमें बसा महान् आत्मा प्रभु 'वसिष्ठ' है। वही सबसे (अग्रे प्र वदाति) प्रथम उपदेश करता है । उक्थ, साम आदि के धारक, उपदेष्टा वेद को स्वयं धारण करता है । हे जनो ! आप उसकी उपासना करें । इति चतुर्विंशो वर्गः । द्वितीयोऽनुवाकः ।।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
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