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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - त एव छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒क्थ॒भृतं॑ साम॒भृतं॑ बिभर्ति॒ ग्रावा॑णं॒ बिभ्र॒त्प्र व॑दा॒त्यग्रे॑। उपै॑नमाध्वं सुमन॒स्यमा॑ना॒ आ वो॑ गच्छाति प्रतृदो॒ वसि॑ष्ठः ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्थ॒ऽभृत॑म् । सा॒म॒ऽभृत॑म् । बि॒भ॒र्ति॒ । ग्रावा॑णम् । बिभ्र॑त् । प्र । व॒दा॒ति॒ । अग्रे॑ । उप॑ । ए॒न॒म् । आ॒ध्व॒म् । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑नाः । आ । वः॒ । ग॒च्छा॒ति॒ । प्र॒ऽतृ॒दः॒ । वसि॑ष्ठः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्थभृतं सामभृतं बिभर्ति ग्रावाणं बिभ्रत्प्र वदात्यग्रे। उपैनमाध्वं सुमनस्यमाना आ वो गच्छाति प्रतृदो वसिष्ठः ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्थऽभृतम्। सामऽभृतम्। बिभर्ति। ग्रावाणम्। बिभ्रत्। प्र। वदाति। अग्रे। उप। एनम्। आध्वम्। सुऽमनस्यमानाः। आ। वः। गच्छाति। प्रऽतृदः। वसिष्ठः ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 14
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरध्यापकाऽध्येतारः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सुमनस्यमाना मनुष्या ! यः प्रतृदो ग्रावाणं सूर्य इव विद्यां बिभ्रद्वसिष्ठोऽग्र उक्थभृतं सामभृतं बिभर्ति सोऽन्यान् प्र वदाति यो व आगच्छाति तमेनं यूयमुपाध्वम् ॥१४॥

    पदार्थः

    (उक्थभृतम्) य ऋग्वेदं बिभर्ति (सामभृतम्) यो सामवेदं दधाति (बिभर्ति) (ग्रावाणम्) सूर्यो मेघमिव (बिभ्रत्) विद्यां धरन् (प्र) (वदाति) वदेत् (अग्रे) पूर्वम् (उप) (एनम्) (आध्वम्) (सुमनस्यमानाः) सुष्ठु विचारयन्तः (आ) (वः) युष्मान् (गच्छाति) गच्छेत् प्राप्नुयात् (प्रतृदः) प्रकर्षेणाविद्यादिदोषहिंसकः (वसिष्ठः) अतिशयेन विद्यादिधनयुक्तः ॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो विद्यार्थी सकलवेदविदं कुशिक्षाऽविद्याहिंसकमाप्तं विद्वांसं पुरः संसेव्य विद्याः पुनरध्यापयति तं सर्वे जिज्ञासवो विद्याप्राप्तये उपासत इति ॥१४॥ अत्राऽऽध्यापकाऽध्येत्रुपदेशकोपदेश्यगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यृग्वेदे सप्तमे मण्डले द्वितीयोऽनुवाकस्त्रयस्त्रिंशं सूक्तं पञ्चमेऽष्टके तृतीयाध्याये चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर पढ़ाने और पढ़नेवाले जन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सुमनस्यमानाः) सुन्दर विचारवाले मनुष्यो ! जो (प्रतृदः) अतीव अविद्यादि दोष के नष्ट करनेवाले (ग्रावाणम्) मेघ को सूर्य जैसे वैसे विद्या को (बिभ्रत्) धारता हुआ (वसिष्ठः) अत्यन्तविद्या आदि धन से युक्त (अग्रे) पूर्व (उक्थभृतम्) ऋग्वेद को और (सामभृतम्) सामवेद को धारण करनेवाले को (बिभर्ति) धारण करता वह औरों को (प्र, वदाति) कहे जो (वः) तुम लोगों को (आ, गच्छाति) प्राप्त हो (एनम्) उस की तुम (उप, आध्वम्) उपासना करो ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो विद्यार्थी सकल वेदवेत्ता कुशिक्षा और अविद्या को नष्ट करनेवाले आप्त विद्वान् की पूर्व अच्छे प्रकार सेवा कर विद्या पाय फिर पढ़ाता है, उसकी सब ज्ञान चाहनेवाले जन विद्या पाने के लिये उपासना करते हैं ॥१४॥ इस सूक्त में पढ़ाने-पढ़ने और उपदेश सुनाने और सुननेवालों के गुण और कार्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेद के सातवें मण्डल में दूसरा अनुवाक, तेतीसवाँ सूक्त और पञ्चम अष्टक के तीसरे अध्याय में चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उत्तम आचार्य वसिष्ठ । उसका शिक्षण ।

    भावार्थ

    जो विद्वान् ( अग्रे ) सबसे पूर्व, ( बिभ्रत्) स्वयं ज्ञान को धारण करता हुआ ( प्र वदाति) उत्तम प्रवचन करता है वह (ग्रावाणं ) मेघ के समान ज्ञान-जल को धारण करने वाले ( उक्थ-भृतं ) ऋग्वेद के धारण करने और ( साम-भृतं ) सामवेद के धारण करने वाले विद्वान् शिष्य को भी ( बिभर्ति ) धारण करता है। वही ( वसिष्ठः ) वसु, ब्रह्मचारियों में सर्वश्रेष्ठ विद्वान् है । हे (प्र-तृदः) तीनों आश्रमों को अन्नादि देने वाले गृहस्थो ! वा हे ( प्रतृदः ) खण्ड २ कर वेद का अध्ययन करने वाले ब्रह्मचारियो ! जब वह (वः आगच्छति) तुम्हें प्राप्त हो तब आप लोग ( एवं ) उसकी ( सुमनस्यमानाः ) शुभ संकल्पयुक्त होकर ( उप आध्वम् ) उपासना कर, उसके समीप बैठकर ज्ञान ग्रहण करो । अथवा—वह वसिष्ठ ही अध्याय, वा पद, प्रकृति प्रत्ययादि विच्छिन्न २ कर पढ़ाने हारा, वा संशयों का छेत्ता ज्ञानी पुरुष 'प्रतृद' है वह जब आवे तब सब उसकी उपासना कर ज्ञान-लाभ करें। इसी प्रकार सबमें बसा महान् आत्मा प्रभु 'वसिष्ठ' है। वही सबसे (अग्रे प्र वदाति) प्रथम उपदेश करता है । उक्थ, साम आदि के धारक, उपदेष्टा वेद को स्वयं धारण करता है । हे जनो ! आप उसकी उपासना करें । इति चतुर्विंशो वर्गः । द्वितीयोऽनुवाकः ।।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शुभ संकल्पवाले होकर वेदोपासना करो

    पदार्थ

    पदार्थ- जो विद्वान् (अग्रे) = सबसे पूर्व, (बिभ्रत्) = ज्ञान को धारण करता हुआ प्र वदाति उत्तम प्रवचन करता है वह (ग्रावाणं) = मेघ के समान ज्ञान-जल को धारक (उक्थ-भृतं) = ऋग्वेद के धारक और (साम-भृतं) = सामवेद के धारक विद्वान् शिष्य को भी (बिभर्ति) = धारण करता है। वही (वसिष्ठः) = वसु ब्रह्मचारियों में श्रेष्ठ है। हे (प्र-तृ-दः) - तीनों आश्रमों को अन्नादि देनेवाले गृहस्थो ! वा हे (प्रतृदः) = खण्ड-खण्ड कर वेद-अध्ययन करनेवाले ब्रह्मचारियो ! जब वह (वः आगच्छति) = तुम्हें प्राप्त हो तब आप एवं उसकी (सुमनस्यमानाः) = शुभ संकल्पयुक्त होकर (उप आध्वम्) = उपासना करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- समस्त विद्याओं का धारक परमेश्वर है उसकी उपासना श्रद्धा के साथ करनेवाला ब्रह्मवित् आचार्य अपने शिष्य को ऋग्वेद के ज्ञान और सामवेद की उपासना से पूरित कर तेजस्वी बनाता है। ऐसा ज्ञानोपासना से पूर्ण विद्वान् जब गृहस्थ के घर पर आवे तो शुभसंकल्प एवं श्रद्धा से पूर्ण होकर गृहस्थी जन उससे वेदोपासना सीखें। अगले सूक्त के ऋषि वसिष्ठ, विश्वेदेवाः तथा अहिः और देवता अहिर्बुध्न्य है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो विद्यार्थी संपूर्ण वेदविद, कुशिक्षा व अविद्या नष्ट करणारा व विद्वानांची चांगल्या प्रकारे सेवा करून, विद्या प्राप्त करून पुन्हा अध्यापन करतो, जिज्ञासू लोक विद्याप्राप्तीसाठी त्याच्याजवळ याचना करतात. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O men of noble mind and heart, the brilliant sage who bears the knowledge of Rgveda and Samaveda and who commands the secrets of yajna relating to the clouds and mountains for rain, and who proclaims the knowledge to dispel the darkness of ignorance, comes to you. Receive him, and welcome him for your good.

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