ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 6
द॒ण्डाइ॒वेद्गो॒अज॑नास आस॒न्परि॑च्छिन्ना भर॒ता अ॑र्भ॒कासः॑। अभ॑वच्च पुरए॒ता वसि॑ष्ठ॒ आदित्तृत्सू॑नां॒ विशो॑ अप्रथन्त ॥६॥
स्वर सहित पद पाठद॒ण्डाऽइ॑व । इत् । गो॒ऽअज॑नासः । आ॒स॒न् । परि॑ऽच्छिन्नाः । भ॒र॒ताः । अ॒र्भ॒कासः॑ । अभ॑वत् । च॒ । पु॒रः॒ऽए॒ता । वसि॑ष्ठः । आत् । इत् । तृत्सू॑नाम् । विशः॑ । अ॒प्र॒थ॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दण्डाइवेद्गोअजनास आसन्परिच्छिन्ना भरता अर्भकासः। अभवच्च पुरएता वसिष्ठ आदित्तृत्सूनां विशो अप्रथन्त ॥६॥
स्वर रहित पद पाठदण्डाऽइव। इत्। गोऽअजनासः। आसन्। परिऽच्छिन्नाः। भरताः। अर्भकासः। अभवत्। च। पुरःऽएता। वसिष्ठः। आत्। इत्। तृत्सूनाम्। विशः। अप्रथन्त ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः केऽध्याप्या अनध्याप्याश्च भवन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! ये गोअजनासः परिच्छिन्ना भरता अर्भकासो दण्डा इवेदासँस्तेषां तृत्सूनां विशोऽप्रथन्त। आदिदेषां यः पुरएता वसिष्ठोऽभवत् स चैतान् सुशिक्षयेत् ॥६॥
पदार्थः
(दण्डाइव) यष्टिका इव शुष्कहृदयाऽभिमानिनः (इत्) (गोअजनासः) गवि सुशिक्षितायां वाच्यप्रादुर्भूताः (आसन्) सन्ति (परिच्छिन्नाः) छिन्नभिन्नविज्ञानाः (भरताः) देहधारकपोषकाः (अर्भकासः) अल्पवयसो बालका इव क्षुद्राशयाः (अभवत्) भवति (च) (पुरएता) यः पुर एति (वसिष्ठः) अतिशयेन वसुमान् धनाढ्यः (आत्) आनन्तर्ये (इत्) (तृत्सूनाम्) अनादृतानाम् (विशः) प्रजा मनुष्यान् (अप्रथन्त) प्रथयन्ति ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्या दण्डयञ्जडबुद्धयः स्युस्ते सुपरीक्ष्याऽनध्यापनीया भवन्ति ये च धीमन्तः स्युस्ते पाठनीया यो विद्याव्यवहारे प्रधानः स्यात्स एवविद्याविभागस्य सुष्ठु प्रबन्धेन शिक्षां प्रापयेत् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन पढ़ाने और कौन न पढ़ाने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जो (गोअजनासः) सुशिक्षित वाणी में अप्रसिद्ध हुए (परिच्छिन्नाः) छिन्न-भिन्न विज्ञानवाले (भरताः) देह धारण और पुष्टि करने से युक्त (अर्भकासः) थोड़ी-थोड़ी आयु के बालक (दण्डाइव) लट्ठ से सूखे हृदय में अभिमान करनेवाले (इत्) ही (आसन्) हैं उन (तृत्सूनाम्) अनादर किये हुओं के बीच (विशः) प्रजा मनुष्यों को (अप्रथन्त) प्रख्यात करते हैं (आत्, इत्) और ही इनके जो (पुरएता) आगे जानेवाला (वसिष्ठः) अतीव धनाढ्य (अभवत्) हो (च) वही इन को अच्छी प्रकार शिक्षा दे ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो मनुष्य दण्ड के समान जड़बुद्धि हों, वे अच्छी परीक्षा कर न पढ़ाने योग्य और जो बुद्धिमान् हों वे पढ़ाने योग्य होते हैं, जो विद्या व्यवहार में प्रधान हो, वही विद्याविभाग की उत्तम प्रबन्ध से शिक्षा पहुँचावे ॥६॥
विषय
उनका संप्रेरक दण्डवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( दण्डा इव परिच्छिन्ना गो-अजनासः ) दण्ड जिस प्रकार शाखा से कट कर भी पशु आदि को हांकने के लिये उत्तम होते हैं इसी प्रकार ( परि-छिन्ना: ) सब प्रकार कटे छटे, सुभूषित, सकुशल, (भरताः) प्रजापालक ( अर्भकासः ) बालकों के समान निर्द्वेष, निर्मोह, स्वच्छ हृदय वा (अर्भकाः = ऋभवः ) सत्य न्याय से प्रकाशित जन, दण्डों के समान ही ( दण्डाः ) दुष्टों के दमन करने वाले ( गो-अजनासः) भूमियों को शासन करने वाले ( आसन् ) हों । ( वसिष्ठः) सबसे उत्तम प्रजा को बसाने वाला राजा, इनका ( पुरः-एता ) अग्रयायी नायक ( अभवत् ) हो और ( आत् इत् ) अनन्तर (तृत्सूनां ) शत्रुहिंसक वीर पुरुषों की ही यह (विशः) समस्त प्रजाएं ( अप्रथन्त ) प्रसिद्ध होती हैं । अथवा— जो ( अर्भकासः ) बालकवत् वा अल्प बुद्धि बल वाले ( भरताः ) भरण पोषण योग्य मनुष्य ( परिच्छिन्ना: ) सब ओर से घिरे हुए, सुरक्षित ( दण्डाः इव ) दण्डों के समान ( गो-अजनासः ) वाणी के अभ्यास में अप्रगल्भ हों (तृत्सूनां ) अनादर योग्य अल्पमान वाले जनों का ( पुरः एता वसिष्ठः अभवत् ) अग्रयायी नायक उत्तम विद्वान् हो तब वे (विशः) उसके अधीन रहकर उसकी प्रजा रूप से प्रसिद्ध होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
राजा अग्रगामी नायक हो
पदार्थ
पदार्थ- (दण्डा इव परिच्छिन्ना गो-अजनास:) = दण्ड जैसे शाखा से कटकर भी पशु आदि को हाँकने के लिये उत्तम होते हैं वैसे (परिछिन्ना:) = सब प्रकार से कटे-छटे, कुशल, (भरता:) = प्रजापालक (अर्भकास:) = बालकों के समान निर्देष, स्वच्छ हृदय दण्डों के समान ही (दण्डाः) = दुष्टों के दमनकर्ता (गो-अजनासः) = भूमियों को शासन करनेवाले (आसन्) = हों। (वसिष्ठः) = प्रजा को बसानेवाला राजा, इनका (पुरः एता) = अग्रयायी नायक (अभवत्) = हो और (आत् इत्) = अनन्तर (तृत्सूनां) = शत्रुहिंसक वीर पुरुषों को ही यह (विशः) = प्रजाएँ (अप्रथन्त) = प्रसिद्ध होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ-जैसे शाखा से कटकर अलग हुआ दण्ड ही पशु आदि को नियन्त्रण करने में समर्थ होता है उसी प्रकार दल, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय आदि के भावों से ऊपर उठा हुआ राजा ही राष्ट्र की प्रजा को नियमों में चलाने में समर्थ होता है। वही अपने दण्ड विधान को प्रबल कर शत्रु को भी जीत सकता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे दंडाप्रमाणे (राजचिन्ह) जडबुद्धी असतात ती अध्यापनायोग्य नसतात. जे बुद्धिमान असतात ते अध्यापनायोग्य असतात. त्यांची परीक्षा करून जे विद्याव्यवहारात मुख्य असतात त्यांनीच विद्या विभागाची उत्तम व्यवस्था करून शिक्षण द्यावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the pioneers and bearers of the burdens of social order be straight and strong like the sceptre of authority, eloquent and progressive in language, education and culture, definite and judicious in law and policy and youthful in energy. Let the leader of these, wise and stable in mind, be ever first and foremost in the advance specially of the people and of the defence and development forces.
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