ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 13
स॒त्रे ह॑ जा॒तावि॑षि॒ता नमो॑भिः कु॒म्भे रेतः॑ सिषिचतुः समा॒नम्। ततो॑ ह॒ मान॒ उदि॑याय॒ मध्या॒त्ततो॑ जा॒तमृषि॑माहु॒र्वसि॑ष्ठम् ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्रे । ह॒ । जा॒तौ । इ॒षि॒ता । नमः॑ऽभिः । कु॒म्भे । रेतः॑ । सि॒सि॒च॒तुः॒ । स॒मा॒नम् । ततः॑ । ह॒ । मानः॑ । उत् । इ॒या॒य॒ । मद्या॑त् । ततः॑ । जा॒तम् । ऋषि॑म् । आ॒हुः॒ । वसि॑ष्ठम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्रे ह जाताविषिता नमोभिः कुम्भे रेतः सिषिचतुः समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात्ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम् ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठसत्रे। ह। जातौ। इषिता। नमःऽभिः। कुम्भे। रेतः। सिसिचतुः। समानम्। ततः। ह। मानः। उत्। इयाय। मध्यात्। ततः। जातम्। ऋषिम्। आहुः। वसिष्ठम् ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 13
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः कथं विद्वांसो जायन्त इत्याह ॥
अन्वयः
यदि जाताविषिता नमोभिः सत्रे हाऽध्यापनाध्ययनाख्ये यज्ञे कुम्भे रेत इव समानं विज्ञानं सिषिचतुस्ततो ह यो मान उदियाय ततो मध्याज्जातं वसिष्ठमृषिमाहुः ॥१३॥
पदार्थः
(सत्रे) दीर्घे यज्ञे (ह) खलु (जातौ) (इषिता) इषितावध्यापकोपदेशकौ (नमोभिः) (कुम्भे) कलशे (रेतः) उदकमिव विज्ञानम् (सिषिचतुः) सिञ्चेताम् (समानम्) तुल्यम् (ततः) (ह) प्रसिद्धम् (मानः) यो मन्यते सः (उत्) (इयाय) एति (मध्यात्) (ततः) तस्मात् (जातम्) प्रादुर्भूतम् (ऋषिम्) वेदार्थवेत्तारम् (आहुः) (वसिष्ठम्) उत्तमं विद्वांसम् ॥१३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा स्त्रीपुरुषाभ्यामपत्यं जायते तथाऽध्यापकोपदेशकाऽध्ययनोपदेशैर्विद्वांसो जायन्ते ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कैसे विद्वान् होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
यदि (जातौ) प्रसिद्ध हुए (इषिताः) अध्यापक और उपदेशक (नमोभिः) अन्नादिकों से (सत्रे) दीर्घ (ह) ही पढ़ाने पढ़नेरूप यज्ञ में (कुम्भे) कलश में (रेतः) जल के (समानम्) समान विज्ञान को (सिषिचतुः) सीचें छोड़ें (ततः, ह) उसी से जो (मानः) माननेवाला (उत्, इयाय) उदय को प्राप्त होता है (ततः) उस (मध्यात्) मध्य से (जातम्) उत्पन्न हुए (वसिष्ठम्) उत्तम (ऋषिम्) वेदार्थवेत्ता विद्वान् को (आहुः) कहते हैं ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे स्त्री और पुरुषों से सन्तान उत्पन्न होता है, वैसे अध्यापक और उपदेशकों के पढ़ाने और उपदेश करने से विद्वान् होते हैं ॥१३॥
विषय
लड़का लड़की दोनों का गुरुगृहवास और व्रत-स्नान ।
भावार्थ
( सत्रे ) दीर्घ वेदाध्ययन रूप यज्ञ वा गुरु के सदन, आश्रम गृह में (जातौ ) उत्पन्न हुए कुमार और कुमारी, दोनों ( इषिता ) एक दूसरे की इच्छा करने वाले होकर ( नमोभिः ) आदर सत्कारों सहित (कुम्भे रेतः) कलश में रक्खे जल से (समानं) मानसहित, वा एक समान ( सिषिचतुः ) अभिषेक वा स्नान करें, अथवा वे दोनों (समानं ) एक दूसरे के समान, परिपक्व (रेतः ) वीर्य को ( कुम्भे ) घट में जल के समान गर्भ में वीर्य का (सिषिचतुः) सेचन करें । ( ततः मध्यात् ) उन दोनों के बीच से ( मानः ) उत्तम परिमाणयुक्त बालक ( उत् इयाय) उत्पन्न होता है (ततः) उससे अनन्तर उसको (ऋषिम् ) प्राप्त जीव को ( वसिष्ठम् आहुः) वसिष्ठ कहते हैं । ठीक इसी प्रकार सत्र में स्थित गुरु आचार्य, घर में नलवत् पात्र में ज्ञान-जल का प्रदान करते हैं । (ततः ) तब ( मानः ) ज्ञानवान् पुरुष उत्पन्न होता है । उसको विद्वान् 'वसिष्ठ ऋषि' उत्तम विद्वान्, ब्रह्मचारी कहते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
ज्ञानदाता गुरु
पदार्थ
पदार्थ- (सत्रे) = गुरु के गृह में (जातौ) = उत्पन्न हुए कुमार और कुमारी दोनों (इषिता) = एक दूसरे की इच्छावाले होकर (नमोभिः) = आदर सहित (कुम्भे रेतः) = कलश में रक्खे जल से (समानं) = एक समान (सिषिचतुः) = अभिषेक करें, (ततः मध्यात्) = उन दोनों के बीच से मानः उत्तम परिमाणयुक्त बालक (उत् इयाय) = उत्पन्न होता है (ततः) = अनन्तर उस (ऋषिम्) = प्राप्त जीव को (वसिष्ठम् आहुः) = 'वसिष्ठ' कहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- जैसे स्त्री और पुरुष आचार्यों के पास पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर पुष्ट बीज से उत्तम सन्तान को उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार उत्तम आचार्य अपने शिष्य में समस्त ज्ञान को धारण कराकर ब्रह्मतेज से तेजस्वी बनाता है। ऐसे शिष्यों से राष्ट्र तेजस्वी बनता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे स्त्री-पुरुषांपासून संतान उत्पन्न होते तसे अध्यापक व उपदेशकाच्या शिकविण्याने व उपदेशाने विद्वान होता येते. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Inspired teachers and scholars risen to eminence over yajnic sessions of teaching relentlessly feed the disciples with gifts of vital knowledge, and from that rises the faithful scholar and sage whom they call Vasishtha, brilliant seer and visionary.
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