ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
त्रयः॑ कृण्वन्ति॒ भुव॑नेषु॒ रेत॑स्ति॒स्रः प्र॒जा आर्या॒ ज्योति॑रग्राः। त्रयो॑ घ॒र्मास॑ उ॒षसं॑ सचन्ते॒ सर्वाँ॒ इत्ताँ अनु॑ विदु॒र्वसि॑ष्ठाः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठत्रयः॑ । कृ॒ण्व॒न्ति॒ । भुव॑नेषु । रेतः॑ । ति॒स्रः । प्र॒ऽजाः । आर्याः॑ । ज्योतिः॑ऽअग्राः । त्रयः॑ । घ॒र्मासः॑ । उ॒षस॑म् । स॒च॒न्ते॒ । सर्वा॑न् । इत् । तान् । अनु॑ । वि॒दुः॒ । वसि॑ष्ठाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रयः कृण्वन्ति भुवनेषु रेतस्तिस्रः प्रजा आर्या ज्योतिरग्राः। त्रयो घर्मास उषसं सचन्ते सर्वाँ इत्ताँ अनु विदुर्वसिष्ठाः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठत्रयः। कृण्वन्ति। भुवनेषु। रेतः। तिस्रः। प्रऽजाः। आर्याः। ज्योतिःऽअग्राः। त्रयः। घर्मासः। उषसम्। सचन्ते। सर्वान्। इत्। तान्। अनु। विदुः। वसिष्ठाः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कि कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा त्रयो भुवनेषु रेतः कृण्वन्ति यथा त्रयो घर्मास उषसं ज्योतिः सचन्ते तथा तिस्रो वसिष्ठा आर्या अग्रा प्रजास्तान् सर्वान्निदनुविदुर्ज्योतिः सचन्ते ॥७॥
पदार्थः
(त्रयः) विद्युद्भौमसूर्याख्याऽग्नयो भूम्यप्तेजांसि वा (कृण्वन्ति) (भुवनेषु) लोकेषु (रेतः) वीर्यम् (तिस्रः) विद्याराजधर्मसभास्थाः (प्रजाः) (आर्याः) उत्तमगुणकर्मस्वभावाः (ज्योतिः) विद्याप्रकाशादिकम् (अग्राः) अग्रगण्याः (त्रयः) (घर्मासः) पापानि (उषसम्) प्रभातवेलाम् (सचन्ते) सम्बध्नन्ति (सर्वान्) (इत्) एव (तान्) (अनु) (विदुः) जानन्ति (वसिष्ठाः) ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कार्यकारणकार्यस्था विद्युतः सूर्यादिकं ज्योतिः प्रकाशयन्त्युषसं दिनं च जनयन्ति तथा तिस्रः सभा धर्मार्थकाममोक्षसाधनप्रकाशान् कुर्वन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (त्रयः) तीन (भुवनेषु) लोकों में (रेतः) वीर्य (कृण्वन्ति) करते हैं जैसे (त्रयः) तीन (घर्मासः) पाप (उषसम्) प्रभातवेला और (ज्योतिः) विद्याप्रकाश आदि का (सचन्ते) सम्बन्ध करते हैं, वैसे (तिस्रः) तीन अर्थात् विद्या, राजा और धर्मसभास्थ (वसिष्ठाः) अतीव धन में स्थिर (आर्याः) उत्तम गुण, कर्म, स्वभाववाले पुरुष (अग्राः) अग्रगण्य (प्रजाः) प्रजा जन (तान्) उन (सर्वान्) सब को (इत्, अनु, विदुः) ही अनुकूल जानते हैं और विद्या प्रकाश आदि को सम्बन्ध करते हैं ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे कार्य्य और कारण को कार्य में स्थिर बिजुलियाँ सूर्य आदि ज्योति को प्रकाशित करती हैं, प्रभातवेला और दिन को उत्पन्न करती हैं, वैसे तीन सभा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष साधन देनेवाले प्रकाशों को करती हैं ॥७॥
विषय
प्रकाश मार्ग से जाने वाली प्रजाओं का श्रेय । उत्तम विद्वान् मार्गदर्शी हों ।
भावार्थ
(त्रयः ) तीन ( भुवनेषु ) उत्पन्न हुए लोकों में उनके निमित्त ( रेतः ) जल, तेज, वीर्य को ( कृण्वन्ति ) उत्पन्न करते हैं और ( तिस्रः ) तीन प्रकार की ( अर्याः प्रजाः ) श्रेष्ठ प्रजाएं (ज्योतिः-अग्राः) प्रकाश को मुख्य रूप से प्राप्त होने वाली होती हैं ( त्रयः ) तीनों ( धर्मासः ) तेजस्वी, वीर्यवान् ही ( उषसं ) उषा को सूर्यवत् कामना योग्य भूमि वा शक्ति को ( सचन्ते ) प्राप्त करते हैं ( तान् सर्वान् इत् ) उन सब को ही ( वसिष्ठाः अनु विदुः ) विद्वान् ब्रह्मचारी अच्छी प्रकार जानते और प्राप्त करते हैं। लोक में सूर्य, विद्युत् और अग्नि तीनों (रेतः) प्रजोत्पादक तेज को उत्पन्न करते और सूर्य वायु और भूमि तीनों प्रजोत्पादक प्रकाश, प्राणाधार जल और अन्न को उत्पन्न करते हैं, तीनों प्रकार की श्रेष्ठ प्रजाएं, जेरज अण्डज और उद्भिज तीनों ही ( ज्योतिरग्राः ) प्रकाश की ओर बढ़ने वाली होती हैं ( त्रयः घर्मासः ) तीनों तेजो युक्त सूर्य, अग्नि, विद्युत् वा ( धर्मासः ) रोचक सूर्य, मेघ और बलवान् पुरुष ( उषसं ) दाहक तापशक्ति और उषाकाल, और कान्ति तथा कामना योग्य स्त्री को प्राप्त करते हैं । उन सब पदों को ( वसिष्ठाः ) उत्तम ब्रह्मचारी जन ही ( अनु विदुः ) प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
तेजस्वी प्रजा
पदार्थ
पदार्थ - (त्रयः) = तीन (भुवनेषु) = उत्पन्न लोकों में रेत: जल, तेज, वीर्य को (कृण्वन्ति) = उत्पन्न के शत्रु करते हैं और (तिस्त्रः) = तीन प्रकार की (आर्याः प्रजाः) = श्रेष्ठ प्रजाएँ (ज्योतिः अग्रा:) = प्रकाश को मुख्य रूप से प्राप्त होती हैं, (त्रयः) = तीनों (घर्मासः) = वीर्यवान् ही (उषसं) = उषा को सूर्यवत्, कामनायोग्य भूमि वा शक्ति को सचन्ते प्राप्त करते हैं (तान् सर्वान् इत्) = उन सबको ही (वसिष्ठाः अनु विदुः) = विद्वान् ब्रह्मचारी अच्छी प्रकार जानते और प्राप्त करते हैं। [२] लोक में सूर्य, विद्युत् और अग्नि तीनों (रेतः) = प्रजोत्पादक तेज को उत्पन्न करते और सूर्य, वायु और भूमि तीनों प्रजोत्पादक प्रकाश, प्राणाधार जल और अन्न को उत्पन्न करते हैं, तीनों प्रकार की श्रेष्ठ प्रजाएँ, जेरज, अण्डज, उद्भिज (ज्योतिरग्राः) = प्रकाश की ओर बढ़नेवाली हैं (त्रयः धर्मासः) = तीनों तेजोयुक्त सूर्य, अग्नि, विद्युत् वा सूर्य, मेघ और बलवान् पुरुष (उषसं) = दाहक तापशक्ति, कान्ति तथा कामना योग्य स्त्री को प्राप्त करते हैं। उन पदों को (वसिष्ठा:) = ब्रह्मचारी ही (अनु विदुः) = प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- राष्ट्र को तेजस्वी राष्ट्राध्यक्ष ही धारण कर सकता है। लोकतन्त्र में प्रजा में से ही राजा का चयन होता है। अतः राष्ट्र की समस्त प्रजा को तेजस्वी होना चाहिए। प्रजा को तेजस्वी बनाने हेतु राजा राजनियम लागू करे कि राज्य का प्रत्येक पाँच वर्ष का बालक/बालिका गुरुकुल में पढ़ने जावे तथा वहाँ आचार्य/आचार्या के निर्देशन में ब्रह्मचर्य के तप से तेजस्वी बने।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी कार्यकारणात असलेली विद्युत, सूर्य इत्यादी ज्योती प्रकाशित करते, प्रभातवेला व दिवस निर्माण करते तशा तीन सभा (विद्या, राज्य, धर्म) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष देणाऱ्या साधनांना प्रकाशित करतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Three vital fires, of earth, sky and the sun, generate life energy in world regions and life forms. Three are the people’s classes dynamic and enlightened. Three vital fires, heat, light and electricity, serve the dawn, and the enlightened scholars know all of them.
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