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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - त एव छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    वि॒द्युतो॒ ज्योतिः॒ परि॑ सं॒जिहा॑नं मि॒त्रावरु॑णा॒ यदप॑श्यतां त्वा। तत्ते॒ जन्मो॒तैकं॑ वसिष्ठा॒गस्त्यो॒ यत्त्वा॑ वि॒श आ॑ज॒भार॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽद्युतः॑ । ज्योतिः॑ । परि॑ । स॒म्ऽजिहा॑नम् । मि॒त्रावरु॑णा । यत् । अप॑श्यताम् । त्वा॒ । तत् । ते॒ । जन्म॑ । उ॒त । एक॑म् । व॒सि॒ष्ठ॒ । अ॒गस्त्यः॑ । यत् । त्वा॒ । वि॒शः । आ॒ऽज॒भार॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्युतो ज्योतिः परि संजिहानं मित्रावरुणा यदपश्यतां त्वा। तत्ते जन्मोतैकं वसिष्ठागस्त्यो यत्त्वा विश आजभार ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽद्युतः। ज्योतिः। परि। सम्ऽजिहानम्। मित्रावरुणा। यत्। अपश्यताम्। त्वा। तत्। ते। जन्म। उत। एकम्। वसिष्ठ। अगस्त्यः। यत्। त्वा। विशः। आऽजभार ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वसिष्ठ ! योऽगस्त्यस्ते विश आजभार उताप्येकं जन्मा जभार उताऽपि त्वाऽऽजभार यद्विद्युतस्संजिहानं ज्योतिर्मित्रावरुणा पर्यपश्यतां त्वैतद्विद्यां प्रापयतस्तदेतत्सर्वं त्वं गृहाण ॥१०॥

    पदार्थः

    (विद्युतः) (ज्योतिः) प्रकाशम् (परि) सर्वतः (संजिहानम्) अधिकरणं त्यजन् (मित्रावरुणा) अध्यापकोपदेशकौ (यत्) यः (अपश्यताम्) पश्यतः (त्वा) त्वाम् (तत्) (ते) तव (जन्म) (उत) अपि (एकम्) (वसिष्ठ) प्रशस्त विद्वन् (अगस्त्यः) अस्तदोषः (यत्) यम् (त्वा) त्वाम् (विशः) प्रजाः (आ,जभार) समन्ताद्बिभर्ति ॥१०॥

    भावार्थः

    यस्य मनुष्यस्य विद्यायां जन्मप्रादुर्भावो भवति तत्प्रज्ञा विद्युज्ज्योतिरिव सकला विद्या बिभर्ति ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वसिष्ठ) प्रशंसायुक्त विद्वान् ! जो (अगस्त्यः) निर्दोष जन (ते) आपकी (विशः) प्रजाओं को (आ, जभार) सब ओर से धारण करता (उत) और (एकम्) एक (जन्म) जन्म को सब ओर से धारण करता और (त्वा) आप को सब ओर से धारण करता तथा (यत्) जिस (विद्युतः) बिजुली को (संजिहानम्) अधिकार त्याग करते हुए (ज्योतिः) प्रकाश को (मित्रावरुणा) अध्यापक और उपदेशक (परि, अपश्यताम्) सब ओर देखते हैं (त्वा) आपको इस विद्या की प्राप्ति कराते हैं, उस समस्त विषय को आप ग्रहण करें ॥१०॥

    भावार्थ

    जिस मनुष्य का विद्या में जन्म प्रादुर्भाव होता है, उसकी बुद्धि बिजुली की ज्योति के समान सकल विद्याओं को धारण करती है ॥१०॥

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    विषय

    जीवों के पुनर्जन्म का रहस्य । विद्युत् की ज्योति के समान जीव का प्रकाशमय रूप ।

    भावार्थ

    जीवों के पुनर्जन्म का रहस्य बतलाते हैं । हे ( वसिष्ठ ) देह में बसे प्राणों में से सबसे श्रेष्ठ जीव ! ( विद्युतः ज्योतिः ) विद्युत् की ज्योति के तुल्य दीप्तिमात्र को ( परि संजिहानं ) सब प्रकार से धारण करने वाले तुझको ( यत् ) जब ( मित्रा वरुणौ ) सूर्य चन्द्रवत्, अपान वा माता पिता दोनों, ( त्वा अपश्यताम् ) तुझको देखते हैं (तत् ) तब, वह ( ते ) तेरा ( जन्मः ) जन्म होता है (उत) और (एकं) एक जन्म तब होता है ( यत् ) जब ( अगस्त्यः ) सूर्य ( त्वा ) तुझको ( विश:) प्रवेश योग्य देहों में, वा आचार्य प्रजाओं में राजा के समान ( आजभार ) प्राप्त कराता है। विद्युत् की ज्योति के समान जीव का प्रकाशमय रूप "तस्यैष आदेश यदेतत् विद्युतो व्यद्युत्तदा३ इतीतिन्यमीमिषदा३ इत्यधिदैवतम् । अथाध्यात्मं ददेतद्गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णं संकल्पः ॥ केनोपनिषत् ।" आत्मा के नाना जन्मों का रहस्य देखो ऐतरेयोपनिषत् अ० २ । ख० १ ॥ जैसे सूक्ष्म जीव के दो जन्म हैं एक पुरुष देह से स्त्री देह में आना, दूसरा स्त्री देह से संसार में प्रकट होना उसी प्रकार इस मनुष्य के दो जन्म हैं, एक मनुष्य योनि में जन्म लेना दूसरा आचार्य गृह में विद्या माता में जन्म लेना ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    जीव के दो जन्म

    पदार्थ

    पदार्थ - जीवों के पुनर्जन्म का रहस्य हे (वसिष्ठ) = देहवासी प्राणों में सबसे श्रेष्ठ जीव ! (विद्युतः ज्योतिः) = विद्युत् की ज्योति के तुल्य दीप्ति को (परि संजिहानं) = सब प्रकार से धारक (त्वा) = तुझको (यत्) = जब (मित्रावरुणौ) = सूर्य-चन्द्रवत्, प्राण- अपान वा माता-पिता दोनों, (अपश्यताम्) = देखते हैं (तत्) = तब (ते) = तेरा (जन्म) = जन्म होता है (उत) = और एक एक जन्म होता है (यत्) = जब (अगत्स्यः) = सूर्य (त्वा) = तुझको (विश:) = प्रवेश योग्य देहों में, वा आचार्य प्रजाओं में राजा के समान (आजभार) = प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- जिस प्रकार से जीवात्मा पहले पिता की देह में पुष्ट होकर माता के गर्भ में जाता है यह उसका प्रथम जन्म है और फिर माता के गर्भ में पुष्ट हो संसार में जन्मता है, यह उसका द्वितीय जन्म है। इस दूसरे जन्म से संसार में उसका अस्तित्व बनता है। इसी प्रकार संसार में भी उसके दो जन्म होते हैं प्रथम माता के गर्भ से द्वितीय आचार्य के गुरुकुलरूपी गर्भ से । आचार्य के गर्भ गुरुकुल से विद्या-बल से पुष्ट होकर समाज में आने पर ही उसका यश एवं अस्तित्व झलकता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या माणसाचा विद्याप्राप्ती करून (नवीन) जन्म होतो त्याची बुद्धी विद्युत ज्योतीप्रमाणे सर्व विद्या धारण करते. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O holy sage of knowledge, peace and power, sun and moon, heat and air, virility and fertility, pranic energies, receive and bear you when, as light of life you leave your sojourn in nature. That is one birth of yours. Then Agastya, the teacher scholar free from sin and stain brings you back to the community of people (as a complete and finished human being, i.e., dvija).

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