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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - त एव छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स प्र॑के॒त उ॒भय॑स्य प्रवि॒द्वान्त्स॒हस्र॑दान उ॒त वा॒ सदा॑नः। यमेन॑ त॒तं प॑रि॒धिं व॑यि॒ष्यन्न॑प्स॒रसः॒ परि॑ जज्ञे॒ वसि॑ष्ठः ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । प्र॒ऽके॒तः । उ॒भय॑स्य । प्र॒ऽवि॒द्वान् । स॒हस्र॑ऽदानः । उ॒त । वा॒ । सऽदा॑नः । यमेन॑ । त॒तम् । प॒रि॒ऽधिम् । व॒यि॒ष्यन् । अ॒प्स॒रसः॑ । परि॑ । ज॒ज्ञे॒ । वसि॑ष्ठः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स प्रकेत उभयस्य प्रविद्वान्त्सहस्रदान उत वा सदानः। यमेन ततं परिधिं वयिष्यन्नप्सरसः परि जज्ञे वसिष्ठः ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। प्रऽकेतः। उभयस्य। प्रऽविद्वान्। सहस्रऽदानः। उत। वा। सऽदानः। यमेन। ततम्। परिऽधिम्। वयिष्यन्। अप्सरसः। परि। जज्ञे। वसिष्ठः ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 12
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स विद्वान् कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! य उभयस्य प्रविद्वान् प्रकेतः सहस्रदान उत वा सदानो यमेन सह ततं परिधिं वयिष्यन् वसिष्ठोऽप्सरसः परि जज्ञे स सर्वैस्सेवनीयोऽस्ति ॥१२॥

    पदार्थः

    (सः) (प्रकेतः) प्रकृष्टप्रज्ञः (उभयस्य) जन्मद्वयस्य (प्रविद्वान्) प्रकृष्टो विद्वान् (सहस्रदानः) असंख्यप्रदः (उत) (वा) (सदानः) दानेन सह वर्त्तमानः (यमेन) वायुना विद्युता वा सह (ततम्) व्याप्तम् (परिधिम्) (वयिष्यन्) व्ययं करिष्यन् (अप्सरसः) अन्तरिक्षचराद्वायोः (परि) सर्वतः (जज्ञे) जायते (वसिष्ठः) अतिशयेन वसुमान् ॥१२॥

    भावार्थः

    यस्य मनुष्यस्य मातुः पितुरादिमं जन्म द्वितीयमाचार्याद्विद्यायाः सकाशाज्जन्म भवति स एवाऽऽकाशस्थपदार्थानां वेत्ता प्रादुर्भूतः पूर्णो विद्वानतुलसुखप्रदो भवति ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (उभयस्य) जन्म और विद्या-जन्म दोनों का (प्रविद्वान्) उत्तम विद्वान् (प्रकेतः) उत्तम बुद्धियुक्त (सहस्रदानः) हजारों पदार्थ देनेवाला (उत, वा) अथवा (सदानः) दानयुक्त (यमेन) वायु वा बिजुली के साथ वर्त्तमान (ततम्) विस्तृत (परिधिम्) परिधि को (वयिष्यन्) खर्च करता हुआ (वसिष्ठः) अतीव धनवान् (अप्सरसः) अन्तरिक्ष में चलनेवाले वायु से (परि, जज्ञे) सर्वतः प्रसिद्ध होता है (सः) वह सब को सेवा करने योग्य है ॥१२॥

    भावार्थ

    जिस मनुष्य का माता पिता से प्रथम जन्म, दूसरा आचार्य से विद्या द्वारा होता है, वही आकाश के पदार्थों को जाननेवाला उत्पन्न हुआ पूर्ण विद्वान् अतुल सुख का देनेवाला है ॥१२॥

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    विषय

    माता आचार्य से उत्पन्न बालक और शिष्य की तुलना ।

    भावार्थ

    माता और आचार्य से उत्पन्न बालक और शिष्य की तुलना जिस प्रकार ( यमेन ) सर्वनियन्ता परमेश्वर से ( ततं ) फैलाये या बनाये (परिधिं) धारक रक्षक देह सांसारिक जीवन को (वयिष्यन् ) पट के समान स्वयं अपने कर्मों द्वारा बिनता, या बनाता और उसको प्राप्त होना चाहता हुआ ( वसिष्ठः ) उत्तम वसु जीव ( अप्सरसः परि जज्ञे ) स्त्री के शरीर से परिपुष्ट होकर प्रकट होता है उसी प्रकार ( वसिष्ठः ) गुरु के अधीन वास कर रहने वाला उत्तम वसु ब्रह्मचारी भी ( यमेन ) नियन्ता आचार्य से ( ततं ) विस्तारित, प्रकाशित (परिधिं) सब प्रकार से धारण करने योग्य ज्ञानमय शास्त्रपट को ( वयिष्यन् ) प्राप्त, रक्षण और विस्तृत करना चाहता हुआ (अप्सरसः ) अन्तरिक्षचारी वायु के समान ज्ञानवान् पुरुष वा आप्त जनों की व्याप्त विद्या से (परि जज्ञे) उत्पन्न होता है । ( सः ) वह ( प्र-केतः ) उत्तम ज्ञानी और (उभयस्य ) पाप और पुण्य, इह लोक और परलोक दोनों को ( प्र-विद्वान्) भली प्रकार जानता हुआ, ( सहस्र-दानः ) सहस्रों का दान देने वाला, परमैश्वर्यं का स्वामी हो । ( उत वा ) अथवा (स-दानः ) दानशील पुरुषों के दिये दान से अलंकृत भिक्षु, ब्राह्मण हो । अर्थात् विद्वान् होने के अनन्तर धनी और त्यागी दोनों में से एक यथेच्छ होकर रह सकता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    कर संन्यास सर्वत्यागी ब्राह्मण

    पदार्थ

    पदार्थ-जैसे (यमेन) = नियन्ता परमेश्वर से (ततं) = फैलाये (परिधिं) = धारक देह सांसारिक जीवन को (वयिष्यन्) = पट के समान स्वयं अपने कर्मों द्वारा बुनता, या बनाता और उसको प्राप्त होना चाहता हुआ (वसिष्ठः) = वसु, जीव (अप्सरसः परिजज्ञे) = स्त्री- शरीर से परिपुष्ट होकर प्रकट होता है, वैसे ही (वसिष्ठः) = गुरु के अधीन बसनेवाला वसु ब्रह्मचारी (यमेन) = नियन्ता आचार्य से (ततं) = विस्तारित (परिधिं) = सब प्रकार से धारण योग्य ज्ञानमय शास्त्रपट को (वयिष्यन्) = प्राप्त रक्षण और विस्तृत करना चाहता हुआ (अप्सरसः) = अन्तरिक्षचारी वायु के समान ज्ञानवान् पुरुष की व्याप्त विद्या से (परि जज्ञे) = उत्पन्न होता है । (सः) = वह (प्र-केतः) = उत्तम ज्ञानी और उभयस्य पाप और पुण्य दोनों को (प्र-विद्वान्) = भली प्रकार जानता हुआ, (सहस्त्र दान:) = सहस्रों का दाता, परमैश्वर्य का स्वामी हो। (उत वा) = अथवा (स-दान:) = दानशीलों के दान से अलंकृत भिक्षु, ब्राह्मण हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ-शिष्य आचार्यों के सान्निध्य में रहकर समस्त ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करे तथा योग साधन द्वारा परमेश्वर को जाने। ऐसा ब्रह्मवित् विद्वान् समाज में आकर ज्ञान-विज्ञान तथा अपने समस्त ऐश्वर्य आदि को जनकल्याण हेतु लगाकर सर्वत्यागी बनकर सच्चा ब्राह्मण कहलावे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या माणसाचा प्रथम जन्म माता-पिता यांच्याद्वारे होतो, दुसरा जन्म आचार्याकडून विद्येद्वारे होतो तोच अवकाशातील पदार्थांचा जाणकार असून पूर्ण विद्वान व अतुल सुख देणारा असतो. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vasishtha, man of enlightenment, scholar of both heaven and earth, blest with a thousand gifts, and giver of a thousand gifts traverses the very bounds of the web of life woven by the mover and law giver of the world and rises over the winds and clouds.

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