ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
आप॑श्चिदस्मै॒ पिन्व॑न्त पृ॒थ्वीर्वृ॒त्रेषु॒ शूरा॒ मंस॑न्त उ॒ग्राः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठआपः॑ । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । पिन्व॑न्त । पृ॒थ्वीः । वृ॒त्रेषु॑ । शूराः॑ । मंस॑न्ते । उ॒ग्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आपश्चिदस्मै पिन्वन्त पृथ्वीर्वृत्रेषु शूरा मंसन्त उग्राः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठआपः। चित्। अस्मै। पिन्वन्त। पृथ्वीः। वृत्रेषु। शूराः। मंसन्ते। उग्राः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
विषय - आप्त प्रजाजनों का कृषि आदि कार्य ।
भावार्थ -
( वृत्रेषु ) मेघों में (आपः चित्) जलधाराएं जिस प्रकार ( अस्मै ) इस सूर्य के बल से ( पृथ्वीः ) भूमियों को ( पिन्वन्त ) सींचती हैं और ( वृत्रेषु ) मेघों के ऊपर ( उग्रः ) उग्र बल की प्रचण्ड वायुएं ( मंसन्ते ) प्रहार करते हैं ( चित् ) उसी प्रकार (अस्मै ) इस राजा के निमित्त ही ( आपः ) नहरें या आप्त प्रजाजन ( पृथ्वीः पिन्वन्त) भूमियों को सींचते, उस पर कृषि आदि करते और ( शूराः ) शूरवीर पुरुष ( वृत्रेषु ) विघ्नकारी पुरुषों पर और नाना धनों के निमित्त (मंसन्ते) उद्योग करते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १-१५, १८-२५ विश्वे देवाः। १६ अहिः। १७ र्बुध्न्यो देवता। छन्दः— १, २, ५, १२, १३, १४, १६, १९, २० भुरिगर्चीगायत्री। ३,४,१७ आर्ची गायत्री । ६,७,८,९,१०,११,१५,१८,२१ निचृत्त्रिपादगायत्री। २२,२४ निचृदार्षी त्रिष्टुप् । २३ आर्षी त्रिष्टुप् । २५ विराडार्षी त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
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