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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - रुद्रः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स हि क्षये॑ण॒ क्षम्य॑स्य॒ जन्म॑नः॒ साम्रा॑ज्येन दि॒व्यस्य॒ चेत॑ति। अव॒न्नव॑न्ती॒रुप॑ नो॒ दुर॑श्चरानमी॒वो रु॑द्र॒ जासु॑ नो भव ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । क्षये॑ण । क्षम्य॑स्य । जन्म॑नः । साम्ऽरा॑ज्येन । दि॒व्यस्य॑ । चेत॑ति । अव॑न् । अव॑न्तीः । उप॑ । नः॒ । दुरः॑ । च॒र॒ । अ॒न॒मी॒वः । रु॒द्र॒ । जासु॑ । नः॒ । भ॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि क्षयेण क्षम्यस्य जन्मनः साम्राज्येन दिव्यस्य चेतति। अवन्नवन्तीरुप नो दुरश्चरानमीवो रुद्र जासु नो भव ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। हि। क्षयेण। क्षम्यस्य। जन्मनः। साम्ऽराज्येन। दिव्यस्य। चेतति। अवन्। अवन्तीः। उप। नः। दुरः। चर। अनमीवः। रुद्र। जासु। नः। भव ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2

    भावार्थ -

    ( सः ) वह राजा या सेनापति ( क्षम्यस्य ) क्षमा योग्य या इस भूमि में रहने योग्य ( जन्मनः ) प्राणी या जनों के ( क्षयेण ) निवास और ऐश्वर्य और ( दिव्यस्य ) आकाश से होने वाले ( क्षयेण ) वृष्टि आदि ऐश्वर्य तथा ( साम्राज्येन ) बड़े भारी साम्राज्य से ( हि ) निश्चय से ( चेतति ) जाना जाय । वा ऐश्वर्य और साम्राज्य के नाते ही सबको जाने । हे राजन् ! तू ( अवन्तीः अवन् ) रक्षा करने वाली सेनाओं और प्रजाओं की रक्षा करता हुआ ( नः ) हमारे ( दुरः ) बनाये द्वारों के ( उपचर ) समीप आ । हे ( रुद्र ) दुष्टों को रुलाने और रोगों को दूर करने हारे विद्वन् ! ( नः ) हमारे ( जासु ) अपत्यादि प्रजाओं के बीच तू ( अनमीवः ) रोगरहित और अन्यों के रोगों से मुक्त करने वाला ( भव ) हो । अथवा वैद्य ( क्षम्यस्य जन्मनः ) भूमि पर उत्पन्न पदार्थों को ( क्षयेण चेतति ) व्यवहार या उनके रोगनाशक सामर्थ्य से जाने और ( दिव्यस्य जन्मनः ) आकाश में उत्पन्न मेघ, जल, नक्षत्र, वायु आदि का ज्ञान ( साम्राज्येन) सूर्यादि के आकाशविज्ञान से करे। ( अवन्तीः ) रोगों से बचाने वाली ओषधियों को ( उप चर ) प्राप्त कर ( नः दुरः ) हमें दुख देने वाले रोगों का उपचार कर । जिससे ( नः ) हमारा ( जासु ) पीड़ा देने वाला रोग ( अनमीव: ) पीड़ादायक न हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    वसिष्ठ ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः – २ निचृत्त्रिष्टुप् । १ विराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ४ स्वराट् पंक्तिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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