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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
आ॒दि॒त्याना॒मव॑सा॒ नूत॑नेन सक्षी॒महि॒ शर्म॑णा॒ शंत॑मेन। अ॒ना॒गा॒स्त्वे अ॑दिति॒त्वे तु॒रास॑ इ॒मं य॒ज्ञं द॑धतु॒ श्रोष॑माणाः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ॒दि॒त्याना॑म् । अव॑सा । नूत॑नेन । स॒क्षी॒महि॑ । शर्म॑णा । शम्ऽत॑मेन । अ॒ना॒गाःऽत्वे । अ॒दि॒ति॒ऽत्वे । तु॒रासः॑ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । द॒ध॒तु॒ । श्रोष॑माणाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्यानामवसा नूतनेन सक्षीमहि शर्मणा शंतमेन। अनागास्त्वे अदितित्वे तुरास इमं यज्ञं दधतु श्रोषमाणाः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआदित्यानाम्। अवसा। नूतनेन। सक्षीमहि। शर्मणा। शम्ऽतमेन। अनागाःऽत्वे। अदितिऽत्वे। तुरासः। इमम्। यज्ञम्। दधतु। श्रोषमाणाः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - अदिति ईश्वर के उपासकों के ज्ञान का सत्संग उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
( आदित्यानाम् ) 'अदिति' अखण्ड और अदीन परमेश्वर के उपासक, प्रजाओं को अपनी शरण में लेने वाले उत्तम पुरुषों के ( नूतनेन अवसा ) अति उत्तम ज्ञान से और ( शन्तमेन शर्मणा ) अति शान्तिदायक गृहवत् देह से हम ( सक्षीमहि ) अपने आपको सम्बद्ध करें । वे ( तुरासः ) अति शीघ्रकारी, ( श्रोषमाणाः ) हमारे दुःख-सुख, विनयादि को सुनते हुए हमारे ( इमं यज्ञं ) इस उत्तम सत्संग ज्ञान दान आदि सम्बन्ध को ( अनागास्त्वे ) हमें पाप रहित करने और ( अदितित्वे ) अखण्ड बनाये रखने के लिये ( दधतु ) सदा स्थिर रक्खे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ आदित्या देवताः ॥ छन्दः – १, २ त्रिष्टुप् । ३ चित्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम् ।
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