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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
वास्तो॑ष्पते प्र॒तर॑णो न एधि गय॒स्फानो॒ गोभि॒रश्वे॑भिरिन्दो। अ॒जरा॑सस्ते स॒ख्ये स्या॑म पि॒तेव॑ पु॒त्रान्प्रति॑ नो जुषस्व ॥२॥
स्वर सहित पद पाठवास्तोः॑ । प॒ते॒ । प्र॒ऽतर॑णः । नः॒ । ए॒धि॒ । ग॒य॒ऽस्फानः॑ । गोभिः॑ । अश्वे॑भिः । इ॒न्दो॒ इति॑ । अ॒जरा॑सः । ते॒ । स॒ख्ये । स्या॒म॒ । पि॒ताऽइ॑व । पु॒त्रान् । प्रति॑ । नः॒ । जु॒ष॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वास्तोष्पते प्रतरणो न एधि गयस्फानो गोभिरश्वेभिरिन्दो। अजरासस्ते सख्ये स्याम पितेव पुत्रान्प्रति नो जुषस्व ॥२॥
स्वर रहित पद पाठवास्तोः। पते। प्रऽतरणः। नः। एधि। गयऽस्फानः। गोभिः। अश्वेभिः। इन्दो इति। अजरासः। ते। सख्ये। स्याम। पिताऽइव। पुत्रान्। प्रति। नः। जुषस्व ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
विषय - उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( वस्तोः पते ) निवास करने के योग्य देह, गृह, और राष्ट्र के पालक प्रभो ! गृहपते ! और राजन् ! तू ( नः ) हमारा ( प्र-तरणः ) नाव के समान संकट से पार उतारने वाला और ( गय-स्फानः ) गृह, प्राण और धन का बढ़ाने वाला ( एधि ) हो । हे ( इन्दो ) ऐश्वर्यवन् ! चन्द्रवत् आह्लादक ! तू ( नः ) हमें ( गोभिः अश्वेभिः ) गौओं और अश्वों सहित प्राप्त हो । ( ते सख्ये ) तेरे मित्र-भाव में हम ( अजरासः ) जरा, वृद्धावस्था से रहित, सदा उत्साह और बल से युक्त होकर रहें । ( नः ) हम से तू ( पिता इव पुत्रान् ) पुत्रों को पिता के समान ( जुषस्व ) प्रेम कर ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ वास्तोष्पतिर्देवता । छन्दः– १, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम् ॥
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