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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 54/ मन्त्र 3
वास्तो॑ष्पते श॒ग्मया॑ सं॒सदा॑ ते सक्षी॒महि॑ र॒ण्वया॑ गातु॒मत्या॑। पा॒हि क्षेम॑ उ॒त योगे॒ वरं॑ नो यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठवास्तोः॑ । प॒ते॒ । श॒ग्मया॑ । स॒म्ऽसदा॑ । ते॒ । स॒क्षी॒महि॑ । र॒ण्वया॑ । गा॒तु॒ऽमत्या॑ । पा॒हि । क्षेमे॑ । उ॒त । योगे॑ । वर॑म् । नः॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वास्तोष्पते शग्मया संसदा ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या। पाहि क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठवास्तोः। पते। शग्मया। सम्ऽसदा। ते। सक्षीमहि। रण्वया। गातुऽमत्या। पाहि। क्षेमे। उत। योगे। वरम्। नः। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 54; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
विषय - उसका तारकवत् वर्णन, उससे प्रार्थना ।
भावार्थ -
हे ( वास्तोः पते ) गृह, देह और राष्ट्र के पालक ! (ते) तेरी ( रण्वा ) अति रमणीय (शग्मया ) सुखदायक ( गातु-मत्या ) उत्तम वाणी और उत्तम भूमि से युक्त ( सं-सदा ) सहवास और सभा से हम लोग ( सक्षीमहि ) सदा सम्बन्ध बनाये रक्खें । ( क्षेमे ) रक्षा-कार्य और ( योगे ) अप्राप्त धन को प्राप्त करने में ( नः ) हमारी ( वरं ) अच्छी प्रकार ( पाहि ) रक्षा करो वा ( नः वरं पाहि ) हमारे धन की रक्षा करो । हे विद्वान् जनो ! (यूयं सदा नः स्वस्तिभिः पात) आप लोग सदा हमारी उत्तम साधनों से रक्षा किया करें । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ वास्तोष्पतिर्देवता । छन्दः– १, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम् ॥
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