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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सूर्यः, मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यत्रा॑ च॒क्रुर॒मृता॑ गा॒तुम॑स्मै श्ये॒नो न दीय॒न्नन्वे॑ति॒ पाथ॑: । प्रति॑ वां॒ सूर॒ उदि॑ते विधेम॒ नमो॑भिर्मित्रावरुणो॒त ह॒व्यैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । च॒क्रुः । अ॒मृताः॑ । गा॒तुम् । अ॒स्मै॒ । श्ये॒नः । न । दीय॑न् । अनु॑ । ए॒ति॒ । पाथः॑ । प्रति॑ । वा॒म् । सूरे॑ । उत्ऽइ॑ते । वि॒धे॒म॒ । नमः॑ऽभिः । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । उ॒त । ह॒व्यैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्रा चक्रुरमृता गातुमस्मै श्येनो न दीयन्नन्वेति पाथ: । प्रति वां सूर उदिते विधेम नमोभिर्मित्रावरुणोत हव्यैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । चक्रुः । अमृताः । गातुम् । अस्मै । श्येनः । न । दीयन् । अनु । एति । पाथः । प्रति । वाम् । सूरे । उत्ऽइते । विधेम । नमःऽभिः । मित्रावरुणा । उत । हव्यैः ॥ ७.६३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    पूर्व आधी ऋचा का सूर्य देवता है । ( दीयन् श्येनः न ) वेग से गति करता हुआ बाज पक्षी जिस प्रकार (पाथः अन्वेति) अन्तरिक्ष मार्ग में अपने शिकार के पीछे २ वेग से जाता है उसी प्रकार ( श्येनः ) प्रशस्त मार्ग से जाने वाला, सुचरित विद्वान् पुरुष ( दीयन् ) सन्मार्ग पर गति करता हुआ उस (पाथः) सन्मार्ग का ( अनु एति ) सदा अनुगमन करे । ( यत्र ) जिससे जाते हुए ( अमृताः ) अमर आत्मा, दीर्घायुयुक्त, जन ( अस्मै ) इसको ( गातुं चक्रुः ) ज्ञान का उपदेश करते हैं । उत्तरार्ध ऋचा के देवता मित्र और वरुण हैं । हे ( मित्रावरुणा ) दिन रात्रि के तुल्य स्नेहयुक्त और श्रेष्ठ गुरुजनो ! (सूरे उदिते ) सूर्य के उदय होने पर ( हव्यैः नमोभिः ) देने और स्वीकार करने योग्य उत्तम अन्नों और विनयादि सत्कार युक्त वचनों से ( वां ) आप दोनों की ( प्रति विधेम ) प्रति दिन सेवा करें अथवा, ( वां प्रति उदिते सूरे नमोभिः हव्यैः विधेम ) आप दोनों के प्रति उत्तम रीति से प्राप्त सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के आने पर उसकी उत्तम वचनों, अन्नों से सेवा करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ – ५ सूर्यः । ५, ६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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